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भी दुःखी हुआ और भाई-बन्धुओं को छोड़कर ऐसी जगह चला गया, जहाँ श्रीकृष्ण के दर्शन ही न हों। ___ परन्तु यह अटल नियम है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता, जब, जिसके निमित्त से, जो होना है, वह, तब, उसी के निमित्त से होकर रहता है, उसे इन्द्र और जिनेन्द्र भी आगे-पीछे नहीं कर सकते, टाल भी नहीं सकते।
लाखों-लाख प्रयत्न करने पर भी दोनों घटनायें हुईं। द्वारिका द्वैपायन मुनि के निमित्त से ही जली और श्रीकृष्ण का निधन जरतकुमार के बाण से ही हुआ - ऐसी श्रद्धा से ज्ञानी किसी भी घटना में हर्ष-विषाद नहीं करते।
यद्यपि श्रीकृष्ण ने द्वारिका में पूर्ण शराब-बन्दी करा दी थी। जो शराब तैयार थी, उसे भी जंगलों में दूर-दूर तक फैंक दिया था; परन्तु वह फैंकी हुई शराब पत्थरों के कुण्डों में पड़ी-पड़ी ज्यों-ज्यों पुरानी पड़ी त्यों-त्यों अधिक मादक होती गई।
श्रीकृष्ण ने यह भी घोषणा करा दी कि जिनेन्द्र के वचन अन्यथा नहीं होते, अत: जो विरागी होकर आत्मा के कल्याण में लगना चाहें, मुनि होकर मोक्षमार्ग में अग्रसर होना चाहें वे खुशी-खुशी जा सकते हैं, परन्तु जो भव्य सम्यग्दृष्टि थे, जिनेन्द्र की वाणी में विश्वास करते थे, वे तो मुनि होकर मोक्षमार्ग साधने लगे और जो मिथ्यादृष्टि थे, कर्तृत्वबुद्धि से ग्रसित थे, वे उन कारणों को दूर करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने सोचा -'न रहे बांस न बजे बांसरी' अत: द्वैपायन को ही खत्म कर दो और जो शराब निमित्त । बननेवाली है, उसे ही जंगलों में फिकवा दी जाये, जब कारण ही नहीं रहेगा तो द्वारिका भस्म होने का कार्य कहाँ से होगा ? परन्तु द्वैपायन मुनि लोंड़ का महीना अर्थात् अधिक माह गिनना भूल जाने से बारहवें वर्ष में ही द्वारिका के जंगल में जा पहुँचे। उधर उसी समय वनक्रीड़ा को आये शम्ब आदि कुमारों ने जंगल के कुण्डों में पड़ी मादक शराब पी ली, जिससे वे उन्मत्त हो गये। उन्होंने द्वैपायन को पहचान लिया और उसे मारने की चेष्टा करने लगे। इससे वे क्रोधित हो उठे। यह बात कृष्ण और बलदेव को मालूम हुई तो उन्होंने |