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|| ने उसके ऊपर जो उपकार किये थे, उन्हें ध्यान में रखकर बोला – “आपका कहना सब सच है, परन्तु अवसर
पर स्वामी का कार्य छोड़कर भाइयों का मोह अनुचित है। इस समय तो मैं स्वामी का कार्य करता हुआ | इतना कर सकता हूँ कि युद्ध में भाइयों को छोड़ अन्य योद्धाओं के साथ युद्ध करूँ। युद्ध समाप्त होने पर यदि हम जीवित रहेंगे तो भाइयों का समागम अवश्य होगा। तू जा और भाइयों को इतनी खबर दे दे - ऐसा कहकर कर्ण ने पुन: माँ के चरण स्पर्श कर विदा किया। माँ कुन्ती ने आकर कर्ण के कहे अनुसार सब बातें कृष्ण आदि को बता दीं।
जरासंध के सेनापतियों ने युद्ध के लिए सेना की बहुत बड़े चक्रव्यूह की रचना की। जिसमें गांधार और सिन्धदेश की सेना, दुर्योधन सहित सौ कौरव और मध्यप्रदेश के राजा भी सम्मिलित थे।
इधर वसुदेव को जब पता चला कि जरासंध की सेना में बृहद चक्रव्यूह की रचना की गई है, तब उसने भी चक्रव्यूह को भेदने के लिए उससे भी प्रबल गरुड़व्यूह की रचना कर डाली।
गणधरदेव कहते हैं कि कोई कितनी भी तैयारी करे, कितनी भी चक्रव्यूहों की रचना में अपनी चतुराई दिखाये, किन्तु जिसने धर्माचरण द्वारा विशेष पुण्यार्जन किया होगा - वही विजयी होगा। युद्ध में विजय तो एक पक्ष की ही निश्चित है, दूसरा पक्ष, जिसके पल्ले पुण्य कम होगा, उसे तो हारना ही है, अत: चक्रव्यूह के साथ अपने परिणामों के दुष्चक्र को भी सुधारना चाहिए; क्योंकि लौकिक सफलता प्राप्त करने में पराक्रम के साथ पुण्य का भी महान योगदान होता है।
गरुडव्यूह संरचना के सफल संचालन के लिए - समुद्रविजय ने वसुदेव के पुत्र अनावृष्टि को अपनी सेना का सेनापति बनाया और दूसरे पक्ष से जरासन्ध ने चक्रव्यूह रचना के संचालन हेतु हिरण्यनाभ को सेनापति बनाया। दोनों ओर से तैयार चक्रव्यूह और गरुड़व्यूह की रचना में स्थित सेना युद्ध के लिए तैयार तो थी ही। युद्ध प्रारंभ हुआ।
शत्रुसेना को प्रबल और अपनी सेना को पीछे हटती देख समुद्रविजय, वसुदेव, नेमिनाथ, अर्जुन, कृष्ण || २३
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