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२३४|| मिलेगा तो ही आहार लेंगे, अन्यथा नहीं।
उन्हें देख कुमार लोहजंघ को उनके प्रति भक्ति जागृत हुई और उसने उन्हें विधिवत् आहारदान दिया। | फलस्वरूप पंच आश्चर्य हुए। तभी तो वह स्थान देवावतार नामक तीर्थ बन गया।
जरासंध यद्यपि संधि के पक्ष में नहीं था तथापि लोहजंघ के मधुर संबोधन से वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए संधि स्वीकार कर ली। लोहजंघ वापिस द्वारिका लौट आया और सब सुख से रहने लगे। एक वर्ष शान्ति से व्यतीत हुआ। एक वर्ष बाद दोनों पक्ष पूरी तैयारी से युद्ध के मैदान 'कुरुक्षेत्र' में आ पहुंचे।
अपने-अपने अधीनस्थ सैकड़ों राजाओं की सेनाओं के साथ दोनों पक्ष की विशाल सेनायें जब आमनेसामने युद्ध के लिए आ गईं तो कुन्ती बहुत घबराई। वह शीघ्र ही कर्ण के पास गई। वहाँ जाने को युधिष्ठिर आदि ने उसे अनुमति दे दी। कन्या (कुमारी) अवस्था में उत्पन्न हुए कर्ण पर उसका अपार स्नेह था, इसकारण वह वहाँ जाने के लिए विवश हो रही थी। वहाँ पहुँचकर उसने कर्ण को कंठ से लगाकर रोतेरोते जो जैसी घटना घटी थी, अपने माता-पुत्र का सम्बन्ध बताया उसने यह भी बताया कि मैंने तुम्हें उत्पन्न होते ही लोक-लाज के भय से कम्बल में लपेटकर छोड़ दिया था। कर्ण कम्बल के वृतान्त को जानता था और यह भी जानता था कि मेरा जन्म कुरुवंश में हुआ है । कुन्ती के कहने पर अब उसे निश्चय हो गया कि मैं कुन्ती और पाण्डु का ही पुत्र हूँ। ___ कर्ण को यह सब ज्ञात होने पर उसने अपनी सर्व पत्नियों के साथ कुन्ती की पूजा की। आदर-सत्कार किया। स्नेह प्रगट करते हुए कुन्ती ने कर्ण से अपने भाई-बन्धुओं से मिलने का आग्रह किया और कहा - कि वे सब तुमसे मिलने को उत्कंठित हैं। इतना ही नहीं युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगायेगा, भीम चंवर ढोरेगा, धनञ्जय मंत्री होगा, सहदेव-नकुल तेरे द्वारपाल होंगे।
इसप्रकार माता के वचनों को सुनकर यद्यपि कर्ण भाइयों के स्नेह को विवश हो गया, परन्तु जरासंध ॥ २३
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