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२३१ || बलि देने लगता है, जो कि सर्वथा गलत है ।
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यदि अपने पुण्य-प्रताप के बिना मात्र देवी-देवताओं द्वारा संसार में इष्ट वर दिया जा सकता होता तो किसी भी मनुष्य को इष्ट सामग्री से रहित नहीं होना चाहिए; क्योंकि प्रायः सभी लोग अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए अपने इष्ट देवों की उपासना निरन्तर करते देखे जाते हैं ।
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जो देवी-देवता अपनी मूर्ति और मन्दिर स्वयं नहीं बना सकते तथा उनकी सुरक्षा भी नहीं कर सकते और जिन्हें प्रतिदिन उपयोग में आनेवाली दीप, धूप, फल, फूल, नैवेद्य आदि के लिए भक्तों द्वारा पूजा की अपेक्षा आशा करनी पड़ती हो, दूसरों का मुँह देखना पड़ता हो, वे दूसरों के लिए क्या वरदान देंगे ?
पूरी पृथ्वी कल्पित देवताओं से भरी हुई है, इसलिए विवेक से विचार कर यथार्थ देव का निर्णय करना चाहिए। लोक में देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता - इन तीन मूढ़ताओं रूपी अन्धकार का समूह बहुत प्रबल | है । अत: सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का निर्णय कर श्रद्धान करना परम - आवश्यक है।
मनुष्य की सम्यक् श्रद्धा ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण है । अत: सर्वप्रथम देवशास्त्र-गुरु एवं सात तत्त्व की तथा आत्मा के स्वरूप की सम्यक् श्रद्धा होना अनिवार्य है; क्योंकि व्रत, तप, शील, संयम आदि सम्यक्दर्शन की शुद्धि से ही निर्मल होते अतः सर्वप्रथम अन्य रागी -द्वेषी देवी| देवताओं से रहित वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु तथा सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना चाहिए ।
एक वणिक अपने बहुमूल्य मणि बेचने के लिए राजा जरासंघ से मिला । मणियों को देख राजा जरासंघ पूछा- 'ये मणि तुम कहाँ से लाये ?'
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वणिक ने कहा – “ये मणि उस द्वारिका से लाये हैं जहाँ अत्यन्त पराक्रमी राजा श्रीकृष्ण रहते हैं । यादवों के स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवादेवी के जब नेमिकुमार उत्पन्न हुए थे तब पन्द्रह मास तक देवों | ने रत्नवृष्टि की थी । उन्हीं रत्नों में से ये रत्न लाया हूँ ।"
वणिक तथा अपने मंत्रियों से यादवों की प्रशंसा और महिमा सुनकर जरासंध को वह प्रशंसा बर्दाश्त
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