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| करते हुए आर्यिकाओं के समूह के साथ निवास करती थी। | अपने विहार काल में जिनेन्द्रों के जन्म, दीक्षा और निर्वाण कल्याणक के तीर्थक्षेत्रों के दर्शन करते हुए वह अपनी सहधर्मिणियों के साथ विन्ध्याचल के विशाल वन में जा पहुँची। वहाँ सिंह के द्वारा आक्रमण होने पर उन्होंने समाधि ले ली। वह तो मृत्यु को प्राप्तकर अपने विशुद्ध परिणामों के फल में स्वर्ग गई; परन्तु उसके नाम पर चोर-लुटेरे और मूर्ख भीलों द्वारा जो हिंसक बलिदान की प्रथा चलाई गयी, वह जानने योग्य है। ताकि भविष्य में कोई ऐसी गलत प्रथाओं के चक्कर में न पड़े।
बात यों बनी - जब वह आर्यिका माता निश्चलरूप से प्रतिमायोग से ध्यानस्थ थी। उससमय कुछ लुटेरे भीलों ने उसे देखा और उन्होंने उसे देवी की मूर्ति समझकर प्रार्थना की और यह संकल्प किया कि यदि हम इस संघ को लूटने में सफल हो जायेंगे तो हे देवी! तेरी ठाट-बाट से पूजा करेंगे।
वे लुटेरे अपनी होनहार से संघ को लूटने में सफल हुए और खूब माल भी मिला, इससे वे मालामाल हो गये, इसे वे उसी देवी का आशीर्वाद और प्रसाद मानकर उसकी पूजा करने वहाँ आये; किन्तु वहाँ आकर देखा तो आर्यिका की जगह केवल उसकी मांस से लथपथ तीन उंगलियाँ ही मिलीं। इस बीच सिंह ने आक्रमण कर उसे मारकर खा लिया था।
भीलों ने उन तीन उंगलियों को ही देवी की प्रतिमा के रूप में स्थापित कर और उसे मांसप्रिय मानकर भैंसों का बलिदान कर उसकी पूजा प्रारंभ कर दी।
यद्यपि वह आर्यिका परम दयालु थी, निष्पाप थी और तप के प्रभाव से उत्तमगति को प्राप्त हुई थी; किन्तु इस संसार में मांसलोभी नरकगामी मूर्खजन उसकी पूजा के नाम पर भैंसा को मारकर प्रसाद के रूप में स्वयं मांस खाने लगे। इसीतरह कुप्रथायें चल जाती हैं और भेड़िया समान भोले प्राणी अंधानुकरण करके भयंकर पाप कर नरकगति के पात्र बन जाते हैं।
वस्तुत: मनुष्यों की कार्यसिद्धि तो अपने पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती हैं; परन्तु देवताओं की प्रतिनिधि | रूप मूर्ति की उपासना करनेवाला उस सिद्धि को मूर्ति द्वारा किया हुआ मानता है। इसकारण मूर्ति के समक्ष ॥ २३
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