SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१९ || की कुन्ती से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक पुत्र हुए। धनश्री एवं मित्रश्री के जीव उन्हें पाण्डु राजा की ह | माद्री रानी से नकुल व सहदेव नामक पुत्र हुए। सुकुमारिका का जीव भी स्वर्ग से च्युत हो द्रोपदी हुई । रि hes 5 वं श क पूर्वभव के स्नेह के कारण इस भव में द्रोपदी व अर्जुन का संयोग हुआ। तीन ज्येष्ठ पाण्डव अर्थात् युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो इसी भव से मोक्ष को प्राप्त होंगे और अन्तिम दो पाण्डव नकुल व सहदेव सर्वार्थसिद्धि जायेंगे । सम्यग्दर्शन से शुद्ध द्रोपदी तप के फलस्वरूप आरण-अच्युत युगल में देव होंगी। | इसके बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मुक्त होगी । इसप्रकार पाण्डव धर्म तथा अपने पूर्वभव श्रवण कर संसार से विरक्त हो तीर्थंकर नेमिप्रभु के समीप संयमी हो गये । कुन्ती, द्रोपदी तथा सुभद्रा आदि राजीमती आर्यिका के समीप तप में लीन हो गईं। सम्यग्दर्शन| ज्ञान- चारित्र, महाव्रत, समिति, गुप्तियों से अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए वे पाण्डव भी तप | करने लगे। उन सब मुनियों में भीमसेन मुनि बहुत ही शक्तिशाली थे। उन्होंने भाले के अग्रभाग से दिए हुए आहार को ग्रहण करने का नियम लिया था । क्षुधा से उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। फिर भी छह महीने में उन्होंने वृत्तिपरिसंख्यान तप को पूरा कर हृदय का श्रम दूर किया था । युधिष्ठिर आदि मुनियों ने भी बड़ी श्रद्धा के साथ बेला-तेला आदि उपवास किए थे। इसप्रकार भीमसेन ने जैनागम के ज्ञाता युधिष्ठिर आदि मुनियों के साथ विहार किया । 11 रुक्मणी का पुत्र प्रद्युम्नकुमार विद्याधर कालसंवर के यहाँ कनकमाला की गोद में पलने और बढ़ने लगा। उसने आठ वर्ष में ही आकाशगामिनी विद्या सीख ली। वह बाल्यकाल से ही अपने रूप सौन्दर्य और पौरुष से सभी पुरुषों के मन को हरण करता था । युवा होते-होते समस्त अस्त्र-शस्त्रों में निपुण हो गया। वह कामदेव पद का धारक पुण्यवान पुरुष था। | कालसंवर के अन्य पत्नियों से जो ५०० पुत्र थे, उन ५०० पुत्रों को कालसंवर ने अपने शत्रु सिंहरथ को परास्त Fof 150 40 5 10 पा भ व २२
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy