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| निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक उक्त बारह व्रतों को निरतिचार धारण करने वाला श्रावक ही व्रती श्रावक कहलाता है, क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के सच्चे व्रतादि होते ही नहीं हैं तथा निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानपूर्वक अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव होने पर प्रकट होने वाली आत्मशुद्धि | के साथ सहज ही ज्ञानी श्रावक के उक्त व्रतादिरूप भाव होते हैं।" ____ यह उपदेश सुनकर राजकन्या को सच्चा व्रत-तप कैसे होता है, किसके होता है ? कब होता है ? यह जानने का विशेष लाभ मिला तथा वक्ता के प्रति अज्ञात स्नेह उमड़ने से ऐसा लगा मानो ये ही मेरे पति युधिष्ठिर हैं, जो मेरे तप के प्रभाव से यहाँ प्रगट हो गये हैं। यद्यपि वे चले गये; फिर भी कन्या उनकी प्राप्ति की आशा से वही तपोवन में रहने लगी।
इधर जब समुद्रविजय को ज्ञात हुआ कि दुर्योधन ने हमारी बहिन कुन्ती और भानजों को महल में जलाकर मार डाला है, तो वे क्रोधित हो कौरवों को मारने हेतु आये। इसके बाद जरासंघ ने स्वयं आकर यादवों और कौरवों के बीच संधि करा दी।
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“वस्तुस्वातन्त्र्य किसी धर्मविशेष या दर्शनविशेष की मात्र मानसिक उपज या किसी व्यक्ति विशेष का वैचारिक विकल्प मात्र नहीं है। बल्कि यह सम्पूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत की अनादिअनन्त स्व-संचालित सृष्टि का स्वरूप है, ऑटोमेटिक विश्वव्यवस्था है।
इस जगत में जितने चेतन व अचेतन पदार्थ हैं, जीव-अजीव द्रव्य हैं; वे सब पूर्ण स्वतंत्र हैं, स्वावलम्बी है। उनका एक-एक समय का परिणमन भी पूर्ण स्वाधीन है।"
- विदाई की बेला, पृष्ठ-५३, हिन्दी संस्करण १० वाँ