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है और उसके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। व्रती श्रावक बिना प्रयोजन जमीन खोदना, पानी ढोलना, | अग्नि जलाना, वायु संचार करना, वनस्पति छेदन करना आदि कार्य नहीं करता अर्थात् त्रसहिंसा का तो | वह त्यागी है ही, पर अप्रयोजनीय स्थावरहिंसा का भी त्याग करता है। राग-द्वेषादिक प्रवृत्तियों में भी उसकी वृत्ति नहीं रमती, वह इनसे विरक्त रहता है। इसी व्रत को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। शिक्षाव्रत :- जिनसे मुनिव्रत पालन की शिक्षा मिले, वे शिक्षाव्रत हैं।
१. सामायिकव्रत :- सम्पूर्ण द्रव्यों में राग-द्वेष के त्यागपूर्वक समता भाव का अवलम्बन करके आत्मभाव की प्राप्ति करना ही सामायिक है। व्रती श्रावक प्रातः, दोपहर, सायं कम से कम अन्तर्मुहूर्त एकान्त स्थान में सामायिक करते हैं।
२. प्रोषधोपवासव्रत :- कषाय, विषय और आहार का त्याग कर आत्मस्वभाव के समीप ठहरना उपवास है। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को सर्वारंभ छोड़कर उपवास करना ही प्रोषधोपवास है।
यह तीन प्रकार से किया जाता है - उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम - पर्व के एक दिन पूर्व और एक दिन बाद एकासनपूर्वक पूर्ण उपवास करना उत्तम प्रोषधोपवास है। मध्यम - केवल पर्व के दिन चारों प्रकार के आहार के त्यागपूर्वक उपवास करना मध्यम प्रोषधोपवास है। जघन्य - पर्व के दिन केवल एकासन करना जघन्य प्रोषधोपवास है।
३. भोगोपभोगपरिमाणव्रत :- प्रयोजनभूत सीमित परिग्रह के भीतर भी कषाय कम करके भोग और उपभोग का परिमाण घटाना भोगोपभोग-परिमाणव्रत है। पंचेंद्रिय के विषयों में जो एक बार भोगने में आ सकें उन्हें भोग और बारबार भोगने में आवें उन्हें उपभोग कहते हैं।
४. अतिथिसंविभागवत :- मुनि, व्रती श्रावक और अव्रती श्रावक इन तीन प्रकार के पात्रों को अपने | भोजन में से विभाग करके विधिपूर्वक दान देना अतिथिसंविभागवत है।
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