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प्रस्थान करने के पूर्व श्रीकृष्ण ने रुक्मणी के भाई रुक्मी को, ब्याहने आये शिशुपाल और उसके पिता || भीष्म को रुक्मणी के हरण का समाचार देकर अपना रथ आगे बढ़ा दिया। उसी समय श्रीकृष्ण ने दिशाओं रि | को गुंजा देनेवाला अपना पाँचजन्य और बलदेव ने अपना सुघोष शंख फूंका, जिससे शिशुपाल की सेना |
क्षुभित हो गई। समाचार मिलते ही रुक्मि और शिशुपाल दोनों ही बड़ी शीघ्रता से रथों पर सवार हो विशाल | सेना के साथ रुक्मणी को ले जाने वाले श्रीकृष्ण और बलदेव का सामना करने के लिए पहुँचे; किन्तु धीरवीर कृष्ण एवं बलदेव उनसे जरा भी विचलित नहीं हुए। अपने अर्द्धासन पर बैठी रुक्मणी को सांत्वना बंधाते हुए एवं मार्ग में आये ग्राम, सरोवर एवं नदियों और बाग-बगीचों की छटा दिखाते हुए धीरे-धीरे जा रहे थे।
पीछे-पीछे भयंकर सेना को आते देख मृगनयनी रुक्मणी अनिष्ट की आशंका करती हुई स्वामी श्रीकृष्ण || से बोली - "हे नाथ ! क्रोध से युक्त वह मेरा भाई महारथी रुक्मी और शिशुपाल बहुत विशाल सशस्त्र सेना के साथ आ रहे हैं; उनके साथ आप दोनों का युद्ध होने पर मुझे अपनी विजय में संदेह हो रहा है।"
श्रीकृष्ण ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा - "हे कोमल हृदये ! तुम भयभीत न हो, मुझ पराक्रमी के रहते हुए उनकी संख्या बहुत होने पर भी कुछ भी नहीं होगा।"
रुक्मणी में निर्भयता और विश्वास जगाने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने बाण से सामने खड़े हुए वटवृक्ष को अनायास ही काट दिया और अंगूठी में जड़े हुए हीरे को हाथ से चूर्ण कर उसके संदेह को नष्ट कर दिया।
राग भी कैसा विचित्र होता है, अभी तक पति के हारने की आशंका से घबराई हुई थी और जब श्रीकृष्ण की असीमित शक्ति का अंदाज लगा तो भाई के प्राण बचाने का विकल्प खड़ा हो गया। नारी के लिए तो जैसा पति का पवित्र प्रेम वैसा ही भाई का पवित्र प्रेम । वह बेचारी जब कभी-कभी दो पाटों के बीच में पिसने जैसी स्थिति में आ जाती है तो उसका तो दोनों ओर से दुःखी होना स्वाभाविक ही है। ___ रुक्मणी ने श्रीकृष्ण से कहा - "हे स्वामी ! आपके द्वारा युद्ध में मेरा भाई यत्नपूर्वक रक्षणीय है। आप || मेरे भाई की रक्षा अवश्य करें।"
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