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१७७|| बोलने की आदत से मजबूर थे एवं घुम्मकड़ प्रकृति के थे। जिनसेन कृत हरिवंश पुराण में तो उन्हें अन्ततोगत्वा |
|| मुक्तिगामी बताया है। इस आधार पर उन्हें चरमशरीरी कहा गया है। ___ एक बार नारदजी यादवों से अनुमति लेकर श्रीकृष्ण का अन्तपुर देखने के लिए रनवास में पहुँच गये। उससमय - श्रीकृष्ण की पटरानी महादेवी सत्यभामा आभूषण पहन कर मणिमय दर्पण हाथ में लिए अपना रूप निहार रही थी। नारद ने उसको दूर से ही देखा तो वह साक्षात् कामदेव की पत्नी रति के समान सुन्दर लग रही थी। अपना रूप दर्पण में देखने में वह इतनी मग्न थी कि नारदजी को देख ही नहीं पायी, इसकारण वह उनके स्वागत में कुछ भी न कर सकी। सम्मान के भूखे नारदजी इसे अपनी उपेक्षा समझकर अनादर मानकर सत्यभामा से असंतुष्ट होकर तुरन्त बाहर निकल गये। बाहर आकर वह विचार करने लगे कि - "इस संसार में समस्त विद्याधर और भूमि गोचरी राजा तथा उनकी रानियाँ आसन से उठकर मुझे नमस्कार करतीं हैं; परन्तु यह सत्यभामा इतनी अभिमानिनी है कि इसने सौन्दर्य के मद में मेरी ओर देखा भी नहीं। अब मैं कृष्ण के चित्त को आकर्षित करनेवाली और मन को मोहनेवाली अन्य स्त्री को इसके सौत के रूप में खोजकर इसे सौतिया पीड़ा पहुँचाकर इसके गर्व को खण्डित कर ही चैन की साँस लूँगा।।
बस, फिर क्या था; नारदजी तत्काल ही आकाश मार्ग से चलकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे । वहाँ के राजा भीष्म के रुक्मि नामक पुत्र और रुक्मणी नाम की एक सर्वांग सुन्दर कन्या थी। वह कन्या ऐसी जान पड़ती थी कि मानों तीनों जगत के उत्तम लक्षण, उत्तम रूप और सद्भाग्य को लेकर कृष्ण के लिए ही रची गई हो। वह कन्या अपने हाथ, पैर, मुख, कमल, रोमराजि, नाभि, उरोज, उदर, भौंह, नाक, नेत्र आदि सभी अंगों की आभा से संसार की सभी उपमाओं को तिरस्कृत करती थी। अनेक उत्तमोत्तम स्त्रियों को देखनेवाले नारद भी उस कन्या को देखकर आश्चर्य में पड़ गये तथा सोचने लगे कि - यदि मैं इस कन्या का कृष्ण के साथ विवाह करा सका तो सत्यभामा का अहंकार खण्डित हो जायेगा।
यह विचार कर नारदजी रुक्मणी के आवास पर गये। नारदजी को आया देख, विनयावनत रुक्मणी १८
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