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अवधिज्ञान के धारी अतिमुक्तक मुनिराज के कहे अनुसार रुक्मणी का श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों | में महत्त्वपूर्ण स्थान पाने का नियोग था; किन्तु उसके भाई रुक्मी ने उसका विवाह शिशुपाल से करने का निश्चय कर लिया था और विवाह की तिथि भी निकट ही आ रही थी फिर यह पांसा कैसे पलटा ? यह एक रोचक प्रसंग है, यह प्रसंग होनहार को तो निश्चित करता ही है, हमारे-तुम्हारे कर्तृत्व के अहंकार को भी कम करता है और हमारी कर्त्ता बुद्धि से होने वाली आकुलता को भी कम करता है।
जैनपुराणों के अनुसार नारायण श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियाँ थीं और सभी एक से बढ़कर एक सुन्दर, सुशील और सर्व गुणसम्पन्न थीं; किन्तु उनमें सत्यभामा तो पटरानी थी ही, रुक्मणी को भी रानियों में प्रमुख स्थान और विशेष स्नेह प्राप्त था ।
एक दिन नारदजी आकाश से उतरकर सभासदों से भरी हुई यादवों की सभा में अचानक जा पहुँचे तो उन्हें देख सभी सभासद उनके सम्मान में खड़े हो गये । बस, इसी बात से नारदजी प्रसन्न हो गये। वैसे तो | स्वभावत: मनुष्य में मान-सम्मान पाकर खुश होने की प्रकृति है; परन्तु नारदजी कुछ अधिक ही सम्मान के भूखे थे। स्वभाव से ही वे सम्मान के भूखे थे । वे थोड़ा-सा सम्मान पाकर ही प्रसन्न हो जाते थे । यादवों की सभा में उन्हें सम्मान मिल गया और वे संतुष्ट हो गये ।
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रुक्मणि का विवाह शिशुपाल से न होने में और श्रीकृष्ण से होने में आकाशचारी नारद निमित्त कैसे बने ? भा यह एक विचित्र घटना है।
नारदजी तापस के वेष में रहते थे, इसकारण उन्हें नारद मुनि कहा जाता था, वस्तुतः वे उससमय जब राजमहलों में आया-जाया करते थे, तब दिगम्बर जैन मुनियों के स्वरूप और आचरण के अनुसार जैन मुनि नहीं थे। फिर भी बालब्रह्मचारी धर्मात्मा जीव तो थे ही। शुद्ध प्रकृति के भी थे, काम-क्रोध-लोभ-मोह| मद और मात्सर्य जैसे अवगुण उनमें दिखाई नहीं देते थे; किन्तु वे जैसे मान-सम्मान से शीघ्र संतुष्ट होते थे | वैसे ही अपमान या उपेक्षा से शीघ्र ही असंतुष्ट भी हो जाते थे । वे युद्धप्रिय और हास्य स्वभाव के थे । अधिक
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