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नेमिकुमार और श्रीकृष्ण सगे चचेरे भाई थे। राजा समुद्रविजय और वसुदेव - दोनों सहोदर न्यायप्रिय, || उदार, प्रजावत्सल, धीर-वीर-गंभीर और अत्यन्त रूपवान, बलवान तथा शलाका पुरुषों के जनक थे।
यद्यपि नेमिकुमार जन्म से ही वैरागी प्रकृति के थे, तथापि कुरुक्षेत्र की रणभूमि में जब एक ओर राजा जरासंध और दूसरी ओर समुद्रविजय की सेनायें अपने-अपने चक्रव्यूह बनाकर युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं, तब उस युद्ध में समुद्रविजय के पक्ष में बलभद्र, श्रीकृष्ण और नेमिकुमार भी युद्ध करने के लिए तैयार थे और इनका सेनापति राजा अनावृष्टि था।
इनके विरुद्ध युद्ध करनेवाले राजा जरासंध की ओर सेनापति के रूप में राजा हिरण्यगर्भ था। दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध के समय बजनेवाली भेरियाँ और शंख गंभीर शब्द करने लगे तथा दोनों ओर की सेना युद्ध करने के लिए परस्पर सामने आ गईं।
शत्रु सेना की प्रबलता और अपनी सेना को पीछे हटती देख नेमिकुमार, अर्जुन और अनावृष्टि युद्ध | विशारद श्रीकृष्ण का संकेत पाकर स्वयं युद्ध करने को तैयार हो गये और इन्होंने जरासंध के चक्रव्यूह को भेदने का निश्चय कर लिया। उससमय शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने के लिए नेमिकुमार ने इन्द्र प्रदत्त शाक नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और अनावृष्टि ने बलाहक नामक शंख बजाया। शंखनाद होते ही उनकी सेना में युद्ध के प्रति पुन: उत्साह बढ़ गया और शत्रु सेना भयाक्रान्त हो गई।
सेनापति अनावृष्टि ने शत्रु द्वारा रचित सेना के चक्रव्यूह का मध्यभाग, नेमिकुमार ने दक्षिण भाग और अर्जुन ने पश्चिमोत्तर भाग भेद डाला। यद्यपि जरासंध शत्रु सेना ने भी अपने पूरे पराक्रम के साथ युद्ध करते हुए समुद्रविजय की सेना का सामना किया; परन्तु वह श्रीकृष्ण और नेमिकुमार के बल एवं पराक्रम के सामने टिक नहीं पाई और तितर-बितर हो गई।
नेमिकुमार के अतुल्यबल को सिद्ध करनेवाली एक घटना भी प्रसिद्ध है -