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जिनभक्तपरायण थीं। सुमित्र की राजधानी कुशाग्रपुर थी। ये सुमित्र और पद्मावती ही २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के माता-पिता थे। इसी हरिवंश के राजा सुव्रत ने आगे चलकर अपने पुत्र दक्ष को राज्य देकर अपने ही पिता तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ से दीक्षा ली थी। इसप्रकार हम देखते हैं कि कुरुवंश कुलोत्पन्न कौरवपाण्डव एवं यदुवंशी कृष्ण और तीर्थंकर नेमिनाथ भी इसी हरिवंश की परम्परा में हुये हैं। । यद्यपि प्रस्तुत ग्रंथ में पात्रों की बहुलता है, परन्तु प्रत्येक पात्र कुछ न कुछ सीख देता है। प्रबुद्ध पाठक पात्रों के साथ स्वयं को साधारणीकरण करता हुआ चलता है अर्थात् पात्र के साथ पात्र का जीवन जीता है, तभी तो उसके भले काम की अनुमोदना और प्रशंसा तथा बुरे काम की निन्दा और उसका निषेध होता है। इससे वह बहुत कुछ सीखता है एवं अपने जीवन को गढ़ता जाता है। ___ वह सोचता जाता है कि “यदि इसकी जगह मैं होता तो........अमुक काम ऐसे नहीं,.......ऐसे करता।" इससे पाठक की सोच और चिन्तन सही दिशा में सक्रिय होता है, विकसित भी होता है।
यदि सभी स्वाध्यायी इसीतरह कथानक के साथ, पात्रों के साथ, साधारणीकरण के सिद्धान्त के साथ, स्वाध्याय में तन्मय होते रहे तो निश्चित ही आशातीत लाभ होगा - आशा है पाठक ऐसा ही करेंगे।
- रतनचन्द भारिल्ल