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| इसी बीच पुत्र को देखने और उसके प्रति हृदय में उमड़े मातृस्नेह से देवकी रानी के दोनों स्तनों में से ह || दूध की धारा झरने लगी। स्तनों से झरती दुग्धधारा उनके पवित्र निश्छल प्रेम की प्रतीक तो थी ही, यह रि | भी सिद्ध कर रही थी कि केवल शत्रु के भय से उसे यशोदा के पास छोड़ा है।।
दुग्ध की धारा वस्त्रों के बाहर आ जाने से कहीं 'असली माँ कौन है' यह रहस्य न खुल जाय, इस भय से बुद्धिमान बलदेव ने अपनी प्रत्युत्पनमति से देवकी के माथे पर एक दूध का भरा धड़ा उड़ेल दिया । तदनन्तर कृष्ण के देखने से जिसे असीमित सुख प्राप्त हुआ था - ऐसी साध्वी माता देवकी को बलदेव मथुरा वापिस ले आये। इसके बाद उन्होंने यह समाचार अपने पिता वसुदेव के लिए भी सुनाये।
कृष्ण जन्म से ही प्रतिभाशाली बुद्धिमान एवं अत्यन्त चतुर थे। बलदेव ने प्रतिदिन जाकर उनकी प्रतिभा को प्रस्फुटित करने एवं बुद्धि को विकसित करने हेतु उन्हें शीघ्र ही विभिन्न कलाओं और गुणों की शिक्षा दी || थी। सो उचित ही किया; क्योंकि शिक्षा के पात्र को पाकर कोई भी शिक्षक शिक्षा देने के अवसर को नहीं चूकते । शीघ्र ही उसे ज्ञानदान देकर निपुण बना देते हैं।
अत्यन्त कोमल हृदय, अत्यन्त निर्विकार कुमार कृष्ण क्रीड़ाओं के समय अतिशय यौवन के उन्माद से भरी एवं पीनस्तनी गोप कन्याओं को रासक्रीड़ा कराते समय अपनी उंगलियों के स्पर्श से उन्हें सुखद अनुभूति कराते हुए भी स्वयं निर्विकारी रहते थे।
जिसप्रकार उत्तम अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठमणि पहनने वाले को सुखद लगता हुआ भी स्वयं निर्विकार रहता है, वह मणि अंगुली का स्पर्श करता हुआ भी स्वयं रोमांचित नहीं होता, निर्विकारी रहता है। वैसे ही कृष्ण यौवन सम्पन्न गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हुए भी निर्विकारी रहते थे।
खेल के समय श्रीकृष्ण को पाकर लोगों को प्रसन्नता होती थी, उसीप्रकार उनके अभाव में लोगों को विरहजन्य संताप भी होता था।
कृष्ण की लोकोत्तर चेष्टायें सुनकर एक दिन कंस को इनके प्रति सन्देह हो गया। श्रीकृष्ण को बैरी ||१४
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