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और संजयन्त - हम चारों वैर बांधकर संसार में अब तक भटकते रहे हैं; अब सौभाग्य से हम चारों जिनागम के शरण में आ गये हैं। संजयन्त तो मुनि होकर केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो ही गया है। मुझे और तुम्हें भी पुण्योदय से स्वर्ग प्राप्त है। यद्यपि हम देवगति में संयम धारण नहीं कर सकते; फिर भी जिनागम के वस्तुस्वरूप का अवलम्बन लेकर पुण्य-पाप की विचित्रता जानकर और राग-द्वेष के कारण उत्पन्न ये संसार बढ़ाने वाले वैर-विरोध का त्यागकर संक्लेश भावों से तो बच ही सकते हैं। अन्यथा अति संक्लेश भावों में मरकर भयंकर नरकरूप संसार सागर में जाने से हम बच नहीं पायेंगे।" | अपने वैर-विरोध के कारणों का उल्लेख करते हुए लान्तव इन्द्र ने आगे कहा - "देखो मैं तुम्हे एक कथा द्वारा वैर के दुष्परिणाम बताता हूँ, संभवत: उसे सुनकर तुम स्वयं वैर-विरोध करना छोड़ दोगे।
जब राजा सिंहसेन को यह ज्ञात हुआ कि - सुमित्तदत्त सेठ के रत्न श्रीभूति पुरोहित ने बेईमानी से वापिस नहीं करने चाहे तो राजा ने उसके लिए तीन वैकल्पिक दण्ड निर्धारित किए “रत्न लौटाओ अथवा गोबर खाओ अथवा मल्ल से तीन मुक्के खाओ" और उसे एक-एक करके तीनों दण्ड भोगने पड़े; क्योंकि पहले उसने गोबर खाना प्रारंभ किया, पर वह पूरा गोबर न खा सका तो वह मुक्का खाने को तैयार हुआ; पर एक ही मुक्के में घबरा गया तो अन्त में रत्न लौटाकर जैसे-तैसे अन्त में प्राण बचाये । संक्लेश से मरकर कुगति हुई सो अलग। राजा सिंहसेन ने श्रीभूति पुरोहित का एक जन्म में दण्ड देकर थोड़ा-सा अनिष्ट किया था; परन्तु उस छोटी-सी घटना से बैर बांधकर श्रीभूति पुरोहित के जीव ने सिंहसेन का अनेक बार घात किया अवश्य; परन्तु उससे उसे लाभ क्या हुआ? प्रत्युत उसके ये वैरभाव से किए कार्य उसके ही सुख के घातक सिद्ध हुए।
सेठ सुमित्तदत्त के रत्न वापिस कराने में रामदत्ता रानी को ही सर्वाधिक श्रेय होने से सेठ ने उसकी कूँख से पुत्र होने का निदान किया - सुमित्र सेठ धर्मात्मा तो था ही, अतः उसके निदान से वह रामदत्ता रानी की कूख से ही राजपुत्र हुआ, जिसका नाम सिंहचन्द्र रखा गया। इसका एक छोटा भाई पूर्णचन्द्र भी था। सुमित्र सेठ की पत्नी का पति से पूर्व वैचारिक मतभेद होने से दोनों में प्रेम पल्लवित्त नहीं हो पाया, खेंचातानी
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