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एक वैजयन्त नाम के राजा थे। उनकी रानी का नाम सर्वश्री था। इनसे संजयन्त और जयन्त नामक पुण्यवान और पवित्रता के पुंज दो पुत्र हुए। एक समय विहार करते हुए वहाँ स्वयंभू तीर्थंकर का समोशरण आया। उनसे धर्मश्रवण कर पिता वैजयन्त एवं संजयन्त और जयन्त दोनों पुत्रों ने दीक्षा धारण कर ली। वे तीनों अपने गुरु आचार्य पिहिताश्रव के साथ विहार करते थे। एक दिन वैजयन्त मुनिराज को केवलज्ञान हो गया। उनके केवलज्ञान कल्याणक के उत्सव में जब चारों निकाय के देव भगवान वैजयन्त की वन्दना कर रहे थे तभी धरणेन्द्र की भक्तिभावना को देख जयन्त मुनि ने धरणेन्द्र होने का निदान किया और वे अपने निदानबंध के अनुसार धरणेन्द्र हो गये।
किसी समय जयन्त के बड़े भाई संजयन्त मुनि श्मशान में सात दिन का प्रतिमायोग लेकर ध्यानस्थ थे। संयोग से विद्यु,ष्ट कहीं से लौटकर वहाँ से निकला तो उसकी दृष्टि तद्भव मोक्षगामी संजयन्त मुनि पर पड़ी। पूर्व वैर के कारण कुपित होकर वह उन्हें वहाँ से उठा लाया और भरतक्षेत्र के उस पर्वत पर ले गया जहाँ पाँच नदियों का संगम था। अपने अधीनस्थ विद्याधरों को किसी तरह संजयन्त मुनि के विरुद्ध भड़का कर मुनि हत्या के लिए प्रेरित कर दिया, जिससे उन्होंने मुनि संजयन्त को मार डालने का प्रयत्न किया; किन्तु वे तो चरमशरीरी थे, उन्हें कौन मार सकता था। उनका तो केवलज्ञान प्राप्त करने एवं मुक्त होने का समय आ गया था, अतः वे तो जीवन के अन्तिम समय में स्वरूप में ध्यानस्थ हो केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गये।
केवली संजयन्त के निर्वाण होने पर उनके निर्वाण का उत्सव एवं पूजा के लिए इन्द्र एवं देव आये । जयन्त का जीव जो निदानवश धरणेन्द्र हुआ था, वह भी आया और वैरी विद्यु,ष्ट को देख जान से मार डालने को तैयार हुआ ही था कि उसी समय लान्तव इन्द्र ने आकर रोका और कहा - "हे धरणेन्द्र ! मैं तुम्हें अपने || आपस में उत्पन्न हुए वैर के बारे में बताता हूँ; तुम ध्यान से सुनो! मैं (लान्तव इन्द्र), तुम (धरणेन्द्र), विद्युद्रष्ट
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