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उनके ऊपर लगनेवाले कामवासना के दोष को कम किया है, अन्यथा किसी कन्या के रूप और नृत्यसंगीत को देखकर उस ओर रागात्मक कामुक दृष्टि से देखना, सम्बन्ध बनाने का प्रयास करना क्या उचित कहा जा सकता है ? वह भी एक शादी-शुदा व्यक्ति के द्वारा । बस, पूर्व भव के संस्कार की बात से ही दोष किंचित् कम हुआ है। | अष्टाह्निका पर्व में कुमार वसुदेव द्वारा पूजा-पाठ सामायिक आदि धार्मिक क्रियाएँ कराकर तथा उनके निमित्त से चौबीस तीर्थंकर की स्तुति का विशद वर्णन कराके पाठकों को पूजन-भक्ति करने का संदेश दिया गया है।
यहाँ जानने योग्य प्रयोजनभूत तीसरी बात यह है कि जो व्यक्ति चार अनुयोगों के स्वरूप को समझकर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समताभाव रखता है, उसे कषाय की मन्दता से विशेष पुण्यार्जन होता है, जिससे लौकिक सुख सामग्री स्वत: ही उसके चरणों में आ पड़ती है। अत: जबतक आत्मसन्मुखता का पूर्ण पुरुषार्थ संभव न हो तबतक तत्त्व के आश्रय और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के अवलम्बन से अपने परिणामों को संक्लेश रहित निर्मल रखना चाहिए।
एक समय वसुदेव गिरतट नगर के उद्यान में रात को विद्या सिद्ध कर रहे थे। कुछ धूर्तों ने विद्या सिद्ध करते हुए उनका अपहरण कर लिया और पिछले पहर में ही पालकी में बैठाकर कहीं दूर ले गये; परन्तु मौका मिलते ही वसुदेव उन धूर्तों की निगाह से बचकर वहाँ से निकलकर तिलवस्तु नामक नगर पहुँचे। वहाँ नगर के बाहर जो चैत्यालय था, उसके उद्यान में रात्रि के समय सो गये। वहाँ एक नरभक्षी सौदास नामक पुरुष ने आकर उन्हें जगाया और बोला - 'तू मेरे मुख में स्वयं आ पड़ा है। और उसने उस वसुदेव की कसकर पिटाई की तो उसके प्रतिकार में वसुदेव ने भी उसकी उसीतरह कसकर पिटाई कर दी। उन दोनों में युद्ध हुआ; अन्त में वसुदेव ने उस राक्षस को मल्लयुद्ध में मार गिराया।
प्रातः नगरवासी वसुदेव को सम्मानपूर्वक रथपर बिठाकर नगर में ले गये और उनका उपकार माना; |
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