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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा . किन्तु कुछ विशेष है, वह विशेष जिसप्रकार है, उसप्रकार कहते हैं। ‘अत्र अपि’ एक ही जीव के एक ही काल में शुद्धपना और अशुद्धपना यद्यपि होता हैं; तथापि वे अपना-अपना ही कार्य करते हैं...... .” अर्थात् यहाँ शुद्धपना संवर- निर्जरा का कार्य करता है और अशुद्धपना बंध का कार्य करता है। ५८ " यहाँ कोई कहे कि शास्त्र में 'सम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा के हेतु कहे हैं। वास्तव में सम्यग्दृष्टि को जितना अशुद्धपना है, उतना सब बंध का कारण है और जितना शुद्धपना है, वह सब संवर-निर्जरा का कारण है। इसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। हे भाई! यह मार्ग ही ऐसा है। आज तक तुमने आत्मा का आश्रय लिया ही नहीं और चौरासी के अवतार में ही अनंत काल से रखड़ रहे हो । कदाचित् बाहर में थोड़ा-बहुत जाननपना होता भी है तो दुनियावाले कहते हैं कि उससे आत्मा को क्या लाभ हुआ ? यही तो अज्ञानी की विपरीत मान्यता है। यथार्थ जानता नहीं है और ज्ञानी गुरु समझावें तो समझता नहीं है। सम्यग्दृष्टि पुरुष की दृष्टि क्रिया से विरक्त है। 'यह क्रिया मेरी है' ऐसा सम्यग्दृष्टि नहीं मानता। अशुद्धपने से वह विरक्त हैं; किन्तु विरक्त होने पर भी उसके अशुद्धता विद्यमान है। दृष्टि और आश्रय की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि क्रिया से विरक्त है; परन्तु कमजोरीवश जितनी अशुद्धता है, वह स्वयं के कारण हैं, किसी कर्मादि के कारण नहीं है। - प्रश्न :- 'क्रिया है', इसलिए विरक्तपना है क्या ? उत्तर :- क्रिया है, इसलिए विरक्तपना नहीं है अथवा अशुद्धपना है इसलिए भी विरक्ति नहीं है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में विरक्तपना है । अन्तर में निज द्रव्य का आश्रय है, अतः विरक्ति है । यह मार्ग किसी को कठिन लगे, तो उसे निवृत्ति नहीं हो सकती । 30 बालबोधिनी टीका पर गुरुदेव श्री के प्रवचन यद्यपि सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रिया से सर्वथा विरक्त है, तथापि चारित्रमोह के उदयवश उसे जितनी क्रिया है, वह बलात् ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध कराती है। सम्यग्दृष्टि को अशुद्धता का स्वामीपना नहीं है, किन्तु पर्याय अशुद्धपना है और इसी का उसे बंध भी है। में यहाँ कोई पूछता है कि एक ओर ज्ञानी के भोग निर्जरा के हेतु कहे हैं और दूसरी ओर ज्ञानी के विद्यमान अशुद्धता का अंश अथवा शुभक्रियारूप दया- दान-व्रतादि के विकल्प बंध के कारण हैं- ऐसा क्यों ? उससे कहते हैं कि वास्तव में ज्ञानी जीव का इन सबसे स्वामीपना छूट गया है। विरक्ति का अर्थ ही यह है कि उसमें यह जीव रक्त नहीं है। यहाँ यह भी बात ध्यान रखना चाहिये कि क्रिया से विरक्ति की बात यहाँ नहीं है; यदि क्रिया से सर्वथा विरक्ति हो, तो इस जीव के मुनिपना हो ही नहीं सकता । सम्यग्दृष्टि का शुभयोग सर्वथा बंध का कारण नहीं है - ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि के शुभयोग को कथंचित् शुद्धता का कारण कहते हैं; किन्तु यह बड़ी भूल है। यदि मूल तत्त्व की बात समझने में ही इतना फेर है, तो उस जीव के व्रत-तपादि कहाँ से होंगे ? व्रत- भक्ति, दया दान तप पूजा आदि जितने भी विकल्प सम्यग्दृष्टि को उठते हैं, वे अंशमात्र भी संवर- निर्जरा के कारण नहीं हैं। वे तो मात्र बंध के ही कारण हैं। शुभयोग में भी शुद्धता का अंश है ऐसा कहा जाता है, लेकिन यह बात अन्य अपेक्षा से है। एक समय की ज्ञानपर्याय का जो अंश है, विकास है, वह निर्मल है, उस निर्मलता को ध्यान में रखकर यह निर्मल है - ऐसा चितवन करते-करते उसमें ही पूर्ण स्थिरता हो तो निर्मलता की प्राप्ति होती है; परन्तु चारित्र गुण में अशुद्धता हो और वह बढ़तेबढ़ते शुद्ध हो जाये - ऐसा नहीं है। जहाँ ग्रंथिभेद है, वहाँ शुद्धता का
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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