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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा ...वहाँ किसी काल में जीव को शुद्धपना-अशुद्धपना एक ही समय में घटता है....' - यहाँ द्रव्य का जितना आश्रय लिया, उतना शुद्धपना प्रगट है; किन्तु जबतक द्रव्य का पूर्ण आश्रय नहीं है, तब तक पर के लक्ष्य से पुण्य-पापरूप अशुद्धभाव उत्पन्न होते रहते हैं । इसप्रकार एक ही समय में मोक्षमार्ग भी है और अशुद्धपना भी है; किन्तु दोनों एकसाथ रहते हुये भी उन दोनों में कोई बाधा नहीं है। अहाहा ! जबतक भगवान आत्मा का पूर्ण आश्रय नहीं है, तबतक परद्रव्य का ही लक्ष्य आता है। भगवान पूर्णानन्द प्रभु दृष्टि में आया। ज्ञान के एक समय की पर्याय में पूर्णता का ज्ञान आया हुआ; किन्तु पर्याय में अभीतक पूर्णता व्यक्त नहीं हुई है, अतः अपूर्णता है। समयसार, गाथा १७-१८ में अज्ञानी जीव की ज्ञान पर्याय में स्वपर प्रकाशकपना कहा है। वहाँ पर्याय में द्रव्य जानने में आ रहा है, यह बात मुख्य है। अज्ञानी की ज्ञान पर्याय क्षयोपशम ज्ञान का अंश है, उसे स्वभाव के स्व-पर प्रकाशक के लिए पर्याय में भी स्वद्रव्य का आश्रय लेना पड़ता है। अनादि से ज्ञान पर्याय में सम्पूर्ण द्रव्य ही जानने में आ रहा है; किन्तु अज्ञानी की दृष्टि इस ओर है ही नहीं। अहाहा ! अज्ञानी को भी वर्तमान ज्ञान अर्थात् क्षयोपशमरूप ज्ञान के विकास का जो अंश विद्यमान है, वह पर की ओर झुका हुआ है, पर्याय में स्वद्रव्य का हुआ है, किन्तु उसकी दृष्टि अन्तर में नहीं, अपितु बाहर की ओर हैं, इसकारण स्व-ज्ञान में आत्मा ज्ञात होने पर भी जानने में नहीं आ रहा है, यह विचित्रता है। अज्ञानी को यह भासित होता है कि मुझे राग जानने में आ रहा है; किन्तु भाई ! अल्प ज्ञानपर्याय की भी सामर्थ्य कितनी है ? वह अल्प ज्ञान पर्याय भी स्व-पर समस्त द्रव्यों को जानने की सामर्थ्य से भरी है। नाटक समयसार में पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं - बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन स्व-पर प्रकाशक शक्ति हमारी, तारौं वचन भेदभ्रम भारी। ज्ञेय शक्ति दुविधा परकाशी, निजरूपा-पररूपा भासी।। 'स्व-पर प्रकाशक शक्ति हमारी' स्व और पर को प्रकाशक करनेवाली शक्ति हमारी पर्याय में विद्यमान है। स्व और पर स्वरूप दो ज्ञेय हैं। स्व-ज्ञेय अर्थात् स्वद्रव्य और परज्ञेय अर्थात् परद्रव्य । सर्वप्रथम पर्याय में स्वज्ञेय जानने में आता है, पश्चात् परज्ञेय जानने में आते हैं; किन्तु यह बात लोगों को कड़वी लगती है, अभ्यास नहीं है न? एक समय की पर्याय स्वद्रव्य का भी ज्ञान करती है और छह द्रव्य का भी ज्ञान करती है। एक समय की पर्याय अथवा श्रुतज्ञान की पर्याय अल्प है, तथापि ज्ञान पर्याय में स्वद्रव्य का ही ज्ञान होता है। स्वद्रव्य अथवा अन्य छह द्रव्य पर्याय में नहीं आते; किन्तु उनका ज्ञान निज ज्ञानपर्याय में होता है। इसप्रकार एक ही समय में स्वद्रव्य और परद्रव्य का ज्ञान हुआ है। ज्ञान गुण के एक समय की पर्याय में इतनी सामर्थ्य भरी हुई है; परन्तु प्रतीति का विषय आश्रयभूत द्रव्य पर्याय आश्रय नहीं करता, तथापि द्रव्य का भावभासन पर्याय में ही होता है और द्रव्य के भासित होने पर पर्याय के लक्ष से भासित होनेवाली वस्तु स्वपदार्थ है। यहाँ शुद्धपना और अशुद्धपना दोनों के एक साथ रहने की बात हैं। निज आत्मा की प्रतीति द्रव्य के आश्रयपूर्वक हुई और सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान हुआ। उससमय थोड़ी शुद्धता हुई और कुछ अंश में अशुद्धता भी है; तथापि उन दोनों के एकसाथ होने में कोई विरोध नहीं है। जिसप्रकार मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन के एक ही समय रहने में विरोध है, उसप्रकार शुद्धपना और अशुद्धपना के एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है। भले ही अशुद्धपना से शुद्धपना विरुद्ध है; किन्तु उन दोनों के एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है। 29
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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