SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा इसप्रकार जीव के श्रद्धा और ज्ञान गुण का स्वरूप समझना । अब जीव के चारित्र गुण की बात करते हैं - यहाँ जीव का विषय-कषायरूप परिणमन हुआ, वह अपने कारण से है। उसमें अन्तरंग कारण तो जीव स्वयं है और बहिरंग कारण चारित्रमोह का उदय है। एक बाह्य निमित्त है और एक अन्तरंग निमित्त है। कोई कहता है कि इन्द्रियों से ज्ञान होता है; किन्तु यह बात असत्य है। ज्ञान तो अपनी स्वयं की पर्याय में स्वयं की योग्यता से होता है, उसमें इन्द्रियाँ निमित्त है; किन्तु करती कुछ नहीं है। ....विशेष यह कि उपशम और क्षपण का क्रम इसप्रकार है; पहले मिथ्यात्व कर्म का उपशम होता है या क्षपण होता है....उसके बाद चारित्रमोह का उपशम या क्षपण होता है.......।' तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम मिथ्यात्व अर्थात् दर्शनमोह का उपशम या क्षय होता है; पश्चात् चारित्रमोह का उपशम और क्षय होता है। अभी मिथ्यात्व का तो नाश नहीं हुआ और चारित्र का नाश हो जाए - ऐसा संभव नहीं है। वास्तव में तो मिथ्यात्व के त्यागपूर्वक राग का त्याग होना यथार्थ त्याग कहलाता है। इस बात को इसप्रकार सिद्ध करते हैं - क्षायिक समकिती श्रेणिक राजा ने तीर्थंकर गोत्र बाँधा, वहाँ उन्हें चारित्रमोहसंबंधी राग है; किन्तु वह राग अपने स्वंय के कारण है और चारित्रमोह कर्म उसमें निमित्त है। श्रेणिक राजा का जीव अभी नरक में है, वहाँ भी उस जीव के जो राग विद्यमान है, वह अपने स्वयं के कारण है। वे क्षायिक सम्यक्त्वी श्रेणिक राजा भविष्यकालीन चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर होंगे। उन्हें तीर्थंकर की जातिरूप पुण्यबंध हुआ है; किन्तु जिन सोलह कारण भावनाओं को भानेरूप विकल्प के कारण तीर्थंकर गोत्र का बंध हुआ हैं, वह भाव भी राग है, धर्म नहीं। बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन पुण्यरूप विकार भी स्वयं के कारण हुआ है, कर्म के कारण नहीं। कर्म अर्थात् निमित्त नाम की वस्तु इस विश्व में है; किन्तु इस निमित्त के कारण पर में किसीप्रकार का परिणमन होता है, ऐसा नहीं। आत्मा स्वयं अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप का अनुभव करता है, तथापि उस शुद्धभाव के साथ अशुद्धभाव के रहने में कुछ विरोध नहीं है। विरोध नहीं है का तात्पर्य यह है कि - जिसप्रकार मिथ्यादर्शनसम्यग्दर्शन अथवा मिथ्याज्ञान-सम्यग्ज्ञान में विरोध है, उसप्रकार शुद्धपना और अशुद्धपना के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। ___द्रव्य तो उसे कहते हैं, जिसे अपने कार्य के लिए अन्य किसी साधन की जरूरत ही नहीं पड़े। जिसे अन्य साधन की आवश्यकता लेना पड़े, वह द्रव्य ही नहीं है। अहाहा ! आत्मा शुद्ध द्रव्य है - ऐसे आश्रय पूर्वक जिसे शुद्धता का अनुभव हुआ उसे अपने कार्य अर्थात् निर्मल परिणति, वीतरागी दशा मोक्षमार्ग की परिणति अथवा स्वद्रव्य का कार्यलाभ प्राप्त करने हेतु अन्य साधनों की राह नहीं देखनी पड़ती।। द्रव्यस्वभाव, पूर्णानन्द परमात्मा, अनंत रत्नाकर का दरिया, अनंतगुणों का गोदाम जो आत्मद्रव्य अन्दर में विराजमान है - उसकी जिसे दृष्टि हुई, उसे ही निज द्रव्य की प्राप्ति हुई है। जिसे अपने कार्य अर्थात् वीतरागता की प्राप्ति के लिए पर साधन की राह नहीं देखना पड़े, उसे द्रव्य कहा जाता है। ऐसे द्रव्यस्वभाव दृष्टि में अनुभव होते ही द्रव्यलाभ प्राप्त होता है। यहाँ व्यवहार अथवा बाह्य अपेक्षाओं की आवश्यकता नहीं है। हे भाई ! भाषा अत्यन्त सरल, सामान्य है; किन्तु मर्म बहुत भरा है। अहाहा ! निज भगवान आत्मा अनन्तगुणों का सागर, शक्तियों का संग्रहालय है। परमात्मस्वरूप भगवान आत्मद्रव्य की जिसे प्रीति 25
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy