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________________ बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन ज्ञानधारा-कर्मधारा हैं; तथापि ज्ञानी जीव को जो राग आता है, वह अपनी स्वयं की योग्यता के कारण ही आता है। वहाँ जीव की विभावरूप परिणमन शक्ति अन्तरंग कारण है और मोहनीय कर्मरूप परिणमित पुद्गलपिण्ड का उदय बहिरंग निमित्त कारण है। लोग कहते हैं कर्म का जोर होने से विकार होते है; किन्तु यह सब झूठ है। वास्तव विकार का कर्ता जीव स्वयं अपनी योग्यता से है। कर्म के कारण विकार होते हैं - ऐसा मानना सर्वथा मिथ्या है। ___ बलभद्र बलदेव श्रीकृष्ण के मृत शरीर को छह माह तक लेकर घूमते रहे। रामचन्द्र भी लक्ष्मण की मृत देह को लेकर छह माह तक घूमते रहे, इसमें एकमात्र कारण राग ही था, जो उनके स्वयं के दोष से हुआ था, कर्म के कारण नहीं। बलभद्र बलदेव एवं रामचन्द्रजी को निज अन्तर में पूर्णतः भान था कि रागादि विकारी भाव मेरी वस्तु नहीं है; किन्तु कमजोरीवश उनकी वैसी अवस्था हुई। इस सन्दर्भ में लोग कहते हैं कि - उन्हें कर्म का उदय था, अत: छह माह तक मृत देह को लेकर घूमते रहे, तत्पश्चात् कर्म के उदय का अभाव हुआ और मृत शरीर को छोड़ दिया; किन्तु भाई ! वास्तव में ऐसा नहीं है। छह माह तक हुआ रागरूप अपराध तो स्वयं के कारण था, उसमें कर्मादि निमित्त नहीं थे। जीव का विभाव परिणाम दो प्रकार का है - १) दर्शनमोह एवं २) चारित्रमोह। यहाँ जीव का सम्यक्त्व गुण ही विभावरूप होकर मिथ्यात्व में परिणमित हुआ है। अहाहा ! आत्मा में अनादि से श्रद्धा नाम का गुण विद्यमान है। वह सम्यक्प परिणमित न होकर मिथ्यात्वरूप परिणमा है, उसमें दर्शनमोहनीय कर्म बाह्य निमित्त है और अन्तरंग कारण आप स्वयं है। प्रश्न :- कर्म और जीव में बलवान कौन हैं ? उत्तर :- विकार को बलवान कहते है; किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। कभी विकार बलवान है तो कभी जीव का स्वभाव बलवान है। __कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है 'कभी कर्म बलवान तो कभी विकार बलवान है; किन्तु जब कर्म बलवान कहलाता है, वहाँ कर्म पर निमित्त का जोर होने से कर्म को बलवान कहा जाता है। अरे भाई ! तुझे सच्ची बात का ठिकाना ही नहीं है और तू धर्म करना चाहता है। धर्म करने के लिए सर्वप्रथम धर्म क्या है ? यह समझना आवश्यक है। यदि वास्तविक धर्म के साथ जीव का एक समय भी व्यतीत होवे, तो वह समय संसार अभाव का कारण बने। ज्ञानावरण के कारण ज्ञान में हीनता आती है - ऐसा लोग मानते हैं; किन्तु भाई ! ज्ञान में हीनाधिकता ज्ञानावरण के कारण नहीं, अपितु स्वयं के कारण है। उसमें ज्ञानावरण कर्म कुछ नहीं करता । ज्ञानावरण कर्म के कारण ज्ञान में हीनाधिकता हो, यह बात तीन काल में सत्य नहीं है; किन्तु हिन्दुस्तान के सब पण्डित/मुनियों में इसप्रकार के कथन की प्रथा प्रचलित है, इसमें सामान्यजन भी क्या करें ? यहाँ तो इतना समझना कि ज्ञान में जो हीन दशा हुई, वह अपने स्वयं के कारण हुई है, जो अन्तरंग कारण है तथा ज्ञानावरणरूप जड़ कर्म उसमें बहिरंग कारण है। 'कर्म का जोर है', अत: हम व्यापारधंदा नहीं छोड़ सकते - ऐसा कुछ लोग कहते हैं; किन्तु यह बात पूर्णतः असत्य है। मिथ्यात्वरूप परिणति तो अपने स्वयं के कारण है। पण्डित कैलाशचन्दजी (बनारसवाले) और अन्य विद्वानों की बात याद आती है, उनमें कुछ विद्वान क्रमबद्धपर्याय को नहीं मानते और निमित्त से थोड़ा-बहुत कार्य होना मानते थे, जिसका स्पष्टीकरण करते हुए ही कैलाशचन्दजी कहते - (१) क्रमबद्धपर्याय तो पूर्णत: सत्य है और (२) निमित्त भी है; लेकिन निमित्त पर का कुछ नहीं करता हैं । पर में जो कुछ भी नहीं करें, वास्तव में उसी का नाम निमित्त है। 24
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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