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गुणस्थान विवेचन धवला पुस्तक१का अंश (पृष्ठ १८० से १८४) अपूर्वकरण प्रविष्ट शद्धि संयतों में सामान्य से उपशमक और क्षपक ये दोनों प्रकार के जीव हैं ।।१६।। ___करण शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पूर्व अर्थात् पहले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है, कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए असंख्यात-लोकप्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थान के अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं।
अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। ___इसमें दिये गये अपूर्व विशेषण से अधःप्रवृत्त-परिणामों का निराकरण किया गया है, ऐसा समझना चाहिये; क्योंकि जहाँ पर उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामों के साथ सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं ऐसे अधःप्रवृत्त में होनेवाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पाई जाती है।
२४. शंका - क्षपणनिमित्तक परिणाम भिन्न हैं और उपशमननिमित्तक परिणाम भिन्न हैं, उनमें एकत्व कैसे हो सकता है?
समाधान - नहीं, क्योंकि क्षपक और उपशमक परिणामों में अपूर्वपने की अपेक्षा साम्य होने से एकत्व बन जाता है।
२५. शंका - पाँच प्रकार के भावों में से इन गुणस्थान में कौनसा भाव पाया जाता है?
समाधान - क्षपक के क्षायिक और उपशमक के औपशमिक भाव पाया जाता है।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अनिवृत्तिकरण नाम का यह नववाँ गुणस्थान है। श्रेणी के गुणस्थानों में इसका दूसरा क्रमांक है।
सिद्ध भगवान अनंत हैं । गुणों की अपेक्षा एक सिद्ध भगवान दूसरे किसी भी सिद्ध भगवान से छोटे अथवा बड़े नहीं होते। सभी सिद्ध भगवान समान ही होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय का नौवाँ सूत्र भेददर्शक है -
क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः।
क्षेत्र, काल, गति आदि बारह अपेक्षाओं से सिद्ध जीवों में भूतकाल में होनेवाली विशेषताओं की अपेक्षा भूतनैगमनय से भेद भी बताये गये हैं। वर्तमान में धर्म परिणाम की/वीतराग परिणाम की अथवा अनंत चतुष्टय की दृष्टि से अथवा सिद्धों के आठ गुणों की मुख्यता से विचार करने पर तो सिद्धों में परस्पर तिलतुषमात्र भी अंतर या भेद नहीं है।
इस अभेद अर्थात् एकरूपता का सही दृष्टि से प्रारंभ नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम समय से ही होता है। इसलिए इस ढाईद्वीप के किसी भी क्षेत्र में कोई भी मुनिराज भले ही वे उपशमक हों अथवा क्षपक हों, वे यदि इस अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम समय में प्रवेश करते हैं, तो उनका धर्मरूप परिणाम समान ही होता है।
संक्षेप में ऐसा भी कह सकते हैं कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के समान ११वें, १२वें, १३वें और १४वें गुणस्थान पर्यंत के सर्व उत्कृष्ट साधकों में घाति-अघाति कर्मोदय से औदयिक भावों में तो परस्पर चाहे जितना भेद हो सकता है; लेकिन उनमें परस्पर वीतरागता अर्थात् धर्मपरिणाम, सुख, शांति में सबकी नियम से समानता ही रहती है।
इसका अर्थ - नौवें गुणस्थान के प्रथम समयवर्ती एक मुनिराज की