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अप्रमत्तविरत गुणस्थान
गुणस्थान विवेचन अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में निवास करनेवाले सर्व महामुनिराज अभूतपूर्व अतीन्द्रिय आत्मानन्द का प्रचुरता से रसपान करते हैं।
६. उपरिम समयवर्ती जीवों के परिणामों से निम्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की सदृश-स्थिति को अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं।
समझ लो, सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती दो मुनिराज हैं। एक मुनिराज को सोलहवें समय में आने वाला शुद्ध परिणाम पंद्रहवाँ समय बीत जाने पर सोलहवें समय में हुआ। अन्य मुनिराज को विशेष पुरुषार्थ द्वारा मात्र चार समय व्यतीत होने पर ही सोलहवें समय के योग्य/सदृश शुद्ध परिणाम हो गया। इसप्रकार उपरिम समयवर्ती जीव के परिणामों से निम्न (अध:) समयवर्ती जीव के परिणामों की सदृशता घटित हुई; इसे ही अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं । उपरोक्त भिन्न समयवर्ती परिणामों की सदृशता को अनुकृष्टि रचना भी कहते हैं।
७. चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम तथा क्षय के प्रसंग में अपूर्वकरण के सन्मुख शुद्धोपयोग परिणामों को अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं।
८. सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मरणकर विग्रहगति के समय चौथा गुणस्थान हो जाता है। अथवा मरण के पहले सातवें गुणस्थान से गिरकर छठवें, पाँचवें, चौथे , दूसरे एवं पहले गुणस्थानों में से किसी भी एक गुणस्थान में आने पर मरण हो सकता है; परन्तु यह नियम नहीं है कि सातवें गुणस्थानवाले चौथे गुणस्थान में ही आकर मरण करें; क्योंकि सातवें गुणस्थान में भी मरण हो सकता है।
धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १७९ से १८०) सामान्य से अप्रमत्तसंयत जीव हैं ।।१५।। प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं, जिनका संयम प्रमाद
सहित नहीं होता है; उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं अर्थात् संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमत्तसंयत समझना चाहिये।
२२. शंका - बाकी के संपूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये शेष संयतगुणस्थानों का अभाव हो जायेगा?
समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि जो आगे कहे जानेवाले अपूर्वकरणादि विशेषणों से युक्त नहीं है और जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है ऐसे संयतों का ही यहाँ पर ग्रहण किया है। इसलिये आगे के समस्त संयतगुणस्थानों का इनमें अन्तर्भाव नहीं होता है।
२३. शंका - यह कैसे जाना जाय कि यहाँ पर आगे कहे जानेवाले अपूर्वकरणादि विशेषणों से युक्त संयतों का ग्रहण नहीं किया गया हैं ?
समाधान - नहीं; क्योंकि यदि यह न माना जाय, तो आगे के संयतों का निरूपण बन नहीं सकता है, इसलिये यह मालूम पड़ता है कि यहाँ पर अपूर्वकरणादि विशेषणों से रहित केवल अप्रमत्त संयतों का ही ग्रहण किया गया है।
वर्तमान समय में प्रत्याख्यानावरणीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय होने से और आगामी काल में उदय में आनेवाले उन्हीं के उदयाभावलक्षण उपशम होने से तथा संज्वलन कषाय के मन्द उदय होने से प्रत्याख्यान की उत्पत्ति होती है, इसलिये यह गुणस्थान भी क्षायोपशमिक है।