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गुणस्थान विवेचन सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं; क्योंकि संयमभाव प्रमाद के परिहार स्वरूप होता है।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों से विरतिभाव को संयम कहते हैं, जो कि तीन गुप्ति और पाँच समितियों से अनुरक्षित हैं। वह संयम वास्तव में प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता है। क्योंकि संयम में प्रमाद से केवल मल की ही उत्पत्ति होती है।
१५. शंका - छठवें गुणस्थान में संयम में मल उत्पन्न करनेवाला ही प्रमाद विवक्षित है, संयम का नाश करनेवाला प्रमाद विवक्षित नहीं है, यह बात कैसे निश्चय की जाय?
समाधान - छठवें गुणस्थान में प्रमाद के रहते हुए संयम का सद्भाव अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिये निश्चय होता है कि यहाँ पर मल को उत्पन्न करनेवाला प्रमाद ही अभीष्ट है। दूसरे छठवें गुणस्थान में होनेवाला स्वल्पकालवर्ती मन्दतम प्रमाद संयम का नाश भी नहीं कर सकता है। क्योंकि सकलसंयम का उत्कटरूप से प्रतिबन्ध करनेवाले प्रत्याख्यानावरण के अभाव में संयम का नाश नहीं पाया जाता।
१६. शंका - पांच भावों में से किस भाव का आश्रय लेकर यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान उत्पन्न होता है ?
समाधान - संयम की अपेक्षा यह गुणस्थान क्षायोपशमिक है। १७. शंका - प्रमत्तसंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक किसप्रकार है ?
समाधान - क्योंकि वर्तमान में प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय होने से और आगामी काल में उदय में आनेवाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न आनेरूप उपशम से तथा संज्वलन कषाय के उदय से प्रत्याख्यान (संयम) उत्पन्न होता है. इसलिये क्षायोपशमिक है।
१८. शंका - संज्वलन कषाय के उदय से संयम होता है, इसलिये उसे औदयिक नाम से क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान - नहीं; क्योंकि संज्वलन कषाय के उदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती है।
प्रमत्तविरत गुणस्थान
१६१ १९. शंका - तो संज्वलन का व्यापार कहाँ पर होता है?
समाधान - प्रत्याख्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से (और सदवस्थारूप उपशम से) उत्पन्न हुए संयम में मल के उत्पन्न करने में संज्वलन का व्यापार होता है।
संयम के कारणभूत सम्यग्दर्शन की अपेक्षा तो यह गुणस्थान क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावनिमित्तक है।
२०. शंका - यहाँ पर सम्यग्दर्शन पद की जो अनुवृत्ति बतलाई है उससे क्या यह तात्पर्य निकलता है कि सम्यग्दर्शन के बिना भी संयम की उपलब्धि होती है ?
समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि आप्त, आगम और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हई तथा जिसका चित्त तीन मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
२१. शंका - यहाँ पर द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं किया है, यह कैसे जाना जाय?
समाधान - नहीं; क्योंकि भले प्रकार जानकार और श्रद्धान कर जो यमसहित है उसे संयत कहते हैं। संयत शब्द की इस प्रकार व्युअात्ति करने से यह दिगम्बर मुनिराज के २८ मूलगणका ग्रहण नहीं किया है। ५ महाव्रत
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह महाव्रत। ५ समिति
ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण
और प्रतिष्ठापना (उत्सर्ग समिति)। ५ इन्द्रियविजय
स्पर्शनन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय,
चक्षुरेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय विजय। ६ आवश्यक
समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, आलोचना (अथवा स्वाध्याय),
प्रत्याख्यान। ७ इतर गुण
केशलुंचन, वरखत्याग, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, खड़े-खड़े भोजन, दिन में एक बार अल्प आहार।