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गुणस्थान विवेचन जब भावलिंगी मुनिराज के तीन कषाय चौकड़ी के अभाव के कारण वीतरागतारूप निश्चय चारित्र प्रगट होता है, तब देशघातिरूप संज्वलन कषाय एवं नौ नोकषायों का उदय रहता है। उस समय ही क्षायोपशमिक चारित्र घटित होता है।
जब जीव के परिणाम/भावों में देशघाति कर्म का उदय निमित्त रहता है, तब ही जीव के क्षायोपशमिक भाव प्रगट होता है; ऐसा नियम है। यह नियम क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेदों में भी लागू होता है।
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायकर्म - ये तीनों सर्वघाति होने से इनमें क्षयोपशम भाव की परिभाषा पूर्णतया घटित नहीं होती। अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय एवं प्रत्याख्यानावरण का उदय होने से औपचारिक क्षायोपशमिक माना गया है। - यही कारण है कि देशविरत गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र नहीं कहा है। काल अपेक्षा विचार -
जघन्य काल - अंतर्मुहूर्त । मनुष्य या तिर्यंच जीव विरताविरत नामक गुणस्थानवर्ती हो जाता है और वह इस पंचम गुणस्थान में रहता है तो कम से कम अंतर्मुहूर्त काल ही रहता है; इससे कम काल में साधक इस गुणस्थान से अन्य गुणस्थानों में गमन नहीं करता है।
जैसे - छठवें-सातवें गुणस्थान से लेकर उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानों का काल मरण की अपेक्षा एक, दो समयादि हो सकता है। सासादन का काल एक, दो समयादि हो सकता है; किन्तु पंचम गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त से कम हो ही नहीं सकता।
उत्कृष्ट काल - मनुष्य की अपेक्षा गर्भकाल सहित आठ वर्ष व एक अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है तथा संमूर्च्छन तिर्यंच की अपेक्षा तीन अंतुर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। (धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३६६)
मध्यम काल - यथायोग्य अंतर्महर्त जघन्य काल में एक. दो. तीन आदि समयों को बढ़ाते-बढ़ाते एक अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत जितने-जितने भेद होते हैं, वे सर्व भेद देशविरति गुणस्थान के मध्यम काल के भेद समझना चाहिए।
देशविरत गुणस्थान
५२. प्रश्न : संमूर्च्छन जीव तो असंज्ञी होते हैं और असंज्ञी जीवों को जब सम्यग्दर्शन ही नहीं होता, तो उनको पाँचवाँ गुणस्थान कैसे हो सकता है ?
उत्तर : संमूर्च्छन जीव असंज्ञी-संज्ञी दोनों होते हैं, यह कथन स्वयंभूरमण समुद्र में निवास करनेवाले संमूर्छन तिर्यंचों की मुख्यता से है।
धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३६६ पर इसका उल्लेख इसप्रकार है कि मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों की सत्तावाला तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, पंचेन्द्रिय संमूर्छन, पर्याप्त मंडुक, मच्छ, कच्छप आदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन - १. कोई पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज पहले जितना शुद्धात्मा का आश्रय ले रहे थे, उससे भी विशेष अधिक रीति से निज शुद्धात्मा का आश्रय लेकर अर्थात् शुद्धोपयोग द्वारा ही अप्रमत्तविरत गुणस्थान में गमन करने से भावलिंगी मुनिराज हो जाते हैं।
भावलिंगी पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक हो अथवा पंचमगुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज हों, वे पाँचवें से -
२. चौथे गुणस्थान में अथवा ३. तीसरे गुणस्थान में अथवा औपशमिक सम्यक्त्व के साथ हों तो,
४. दूसरे गुणस्थान में अथवा परिणामों में विशेष अध:पतन होने के कारण सीधे,
५. मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन कर सकते हैं।
आगमन - १. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज सीधे देशविरत में आ सकते हैं।
२. चौथे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज अथवा द्रव्यलिंगी श्रावक देशविरत गुणस्थान में आ सकते हैं।
३. प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज अथवा द्रव्यलिंगी श्रावक भी सीधे इस देशविरत गुणस्थान में आ सकते हैं।