________________
देशविरत गुणस्थान पाँचवें गुणस्थान का नाम देशविरत है। बाह्य में बुद्धिपूर्वक अणुव्रत ग्रहण करने पर और अन्तरंग में सम्यग्दर्शनपूर्वक अनंतानुबंधी व अप्रत्याख्यानावरण कषाय चौकड़ी के अनुदय होने से देशचारित्ररूप आंशिक वीतराग परिणाम प्रगट होने के कारण पंचम गुणस्थान होता है। ___मात्र वीतरागभाव को पंचम गुणस्थान नहीं कहते, वीतरागता के अविनाभावी बाह्य अणुव्रतादि पालन करने का राग भाव अर्थात् पुण्य परिणाम भी इस गुणस्थान के स्वरूप में अंतर्गर्भित है।
४८. प्रश्न : कोई मनुष्य अणुव्रतादि को ग्रहण करे और उसे दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागता व्यक्त न हो तो उसे पाँचवाँ गुणस्थान होगा या नहीं?
उत्तर : नहीं होगा; क्योंकि मात्र अणुव्रतादि के ग्रहण करनेरूप राग अर्थात् पुण्य परिणाम को देशविरत गुणस्थान नहीं कहते; क्योंकि यह मान्यता व्यवहाराभासरूप है। दो कषाय चौकड़ी के अनुदय से वीतरागतारूप सच्चा धर्म व्यक्त हो गया हो और उसीसमय अणुव्रतादि के पालन करने का शुभ परिणाम भी चल रहा हो तो ही देशविरत गुणस्थान होता है; क्योंकि यहाँ व्यवहार-निश्चय का सुमेल है।
अणुव्रतादि या महाव्रत पाँचवें अथवा छठवें-सातवें गुणस्थान के उत्पादक कारण नहीं हैं; मात्र ज्ञापक कारण हैं। ज्ञापक कारण अर्थात् निमित्त । निमित्त को उत्पादक कारण मानना महान अज्ञान है।
आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३० में देशविरत गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है -
पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो ण होदि णवरिंतु। थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ ।।
देशविरत गुणस्थान
प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय काल में अर्थात् निमित्त से पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शनपूर्वक, अणुव्रतादि सहित तथा दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त होनेवाली वीतराग दशा को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।
उक्त परिभाषा में "प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय काल में" ऐसा वाक्य है तथा आगे कहा है कि “पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी।" इन कथनों का अर्थ यह हुआ कि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में
आंशिक वीतरागतारूप देशसंयम होता है। अणुव्रतादि श्रावक के शुभोपयोगरूप व्रतों के पालन का भाव प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय का कार्य है।
यह विचारणीय है कि अणुव्रतादि के पालन का भाव औदयिक भाव है; जो कर्म के उदय के निमित्त से होता है, वह वीतरागभावरूप निश्चयधर्म कैसे हो सकता है ? जो कर्मोदय के निमित्त से होगा, वह तो शुभ अथवा अशुभभावरूप विभाव ही होगा, वह वीतरागभावरूप धर्म नहीं हो सकता।
व्रतपालन के शुभ परिणाम व बाह्य क्रिया को तो उपचार से व्यवहार धर्म कहा है। इसे व्यवहार धर्म भी इसलिए कहा है कि इसके साथ में दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक आंशिक वीतरागरूप निश्चय धर्म होता है।
चौथे गुणस्थान से ही आंशिक वीतरागतारूप ज्ञानधारा/धर्मधारा प्रारंभ हो गई है; चौथे में रागधारा अर्थात् कर्मधारा विशेष अधिक थी। अब देशविरत गुणस्थान में वीतरागधारा बढ़ गई है और रागधारा चौथे गुणस्थान की अपेक्षा हीन हो गयी है। नाम अपेक्षा विचार -
विरताविरत, संयमासंयम, देशसंयम, देशचारित्र, इत्यादिअनेकनामपाँचवें गुणस्थान के लिए हैं। पंचम गुणस्थानवर्ती त्रस हिंसा से विरत है और स्थावर हिंसा से अविरत रहता है, अत: इसका विरताविरत नाम भी सार्थक है।
बारह प्रकार की अविरति में से आंशिकरूप से संयम का पालन करते हैं और शेष असंयम है; ऐसा जिसका जीवन हो, उसे संयमासंयमी कहते हैं।