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अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान
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गुणस्थान विवेचन अन्याय - जिस काम को सरकार भी अयोग्य मानती है, दण्डयोग्य समझती है, मनुष्य को जेल में डालती है, देश से बाहर निकाल देती है, फाँसी आदि की सजा देती है। ऐसा कोई भी काम करनेवाला मनुष्य अन्यायी है और वह सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए अपात्र है।
अनीति - जिस काम के कारण जैन समाज अथवा जैनेतर समाज भी मनुष्य की निंदा करे, ऐसा कार्य अनीति की कोटि में आता है। जैसे - वृद्ध माता-पिता की सेवा नहीं करना, दूसरों की निंदा करते रहना, लौकिक नीति से विरुद्ध आचरण रखना आदि । (अधिक जानकारी के लिए भावदीपिका शास्त्र का औदयिक भावाधिकार देखें)
अभक्ष्य - जिस खान-पान की जैन शास्त्रों में सहमति नहीं है। ऐसे वस्तुओं के भक्षण को अभक्ष्य कहते हैं। जैसे - अनंतकाय जीव जिसमें हैं; ऐसे पदार्थ - प्याज, लहसुन, मूली, आलू, शकरकंद, गाजर आदि जमीकन्द का भक्षण, रात्रिभोजन करना, अनगालित (अनछना) जलपान आदि सब अभक्ष्य की कोटि में गिने जाते हैं। इसतरह अन्याय, अनीति और अभक्ष्य के बुद्धिपूर्वक त्यागी पात्र जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति के अधिकारी समझना चाहिए।
सप्तव्यसन और तीव्र हिंसादि पापों का त्याग तो नामधारी जैन भी करता ही है । सप्तव्यसनादि के त्याग के लिए जैन मनुष्य को समझाना जैन मनुष्य का अपमान करने जैसा है।
इस विषयक मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २६१ पर अत्यंत मार्मिक कथन आया है, उसे उस शास्त्र के शब्दों में ही देखिए - "..... किसी को देवादिक की प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत् होते हैं तथा व्रत-तप, सम्यक्त्व के साथ भी होते हैं और पहले-पीछे भी होते हैं। देवादिक की प्रतीति का तो नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता; व्रतादिक का नियम नहीं है। बहुत जीव तो पहले सम्यक्त्व; पश्चात् ही व्रतादिक को धारण करते हैं, किन्हीं को युगपत् भी हो जाते हैं.....।"
४६. प्रश्न : अणुव्रतों या महाव्रतों का स्वीकार करना सम्यक्त्व के लिए आवश्यक है या नहीं?
१२३ उत्तर : सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए अणुव्रतों अथवा महाव्रतों का पालन करना आवश्यक नहीं है। हाँ, यदि सम्यग्दर्शन के पहले कदाचित् बाह्य व्यवहार व्रत ले लिए हों तो उनके पालते हुये भी तत्त्वचिंतन की मुख्यता हो तो सम्यग्दर्शन हो सकता है; परन्तु व्रतों के बिना भी अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती है। विशेष अपेक्षा विचार -
१.अविरतसम्यग्दृष्टि को विशिष्ट प्रशस्त राग के कारण ही तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का बंध प्रारंभ होता है। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। इन सोलह भावनाओं में भी मुख्यरूप से तो एक दर्शनविशुद्धि भावना ही कारण है। यह एक भावना हो और अन्य पन्द्रह भावनाएँ हीनाधिक भी हों तो भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।
यह एक भावना ही अन्य सभी भावनाओं की उत्पादक है।
सब जीवों का परमकल्याण हो, सब जीव मेरे समान मोक्षमार्गी होकर सुखी बनें - ऐसी सम्यग्दर्शनपूर्वक लोक-कल्याण की अखंड भावना का नाम ही दर्शनविशुद्धि भावना है।
चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक कहीं भी तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का बंधना प्रारम्भ हो सकता है। आठवें गुणस्थान के छठवें भागपर्यंत तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है; परंतु उदय तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानों में ही रहता है, जिसकारण बाह्य में समवशरण की प्राप्ति होती है।
२. इस अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से ही जीव को पारमार्थिक अतीन्द्रिय सुख का अंश प्रगट होता है। विपरीत श्रद्धानी अर्थात् प्रथम गुणस्थान से तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से दुःखी ही हैं। पूर्व पुण्योदय के उदय से कुछ जीवों को बाह्य अनुकूल वस्तुओं के संयोग में सुख जैसा लगता है; परंतु वह सच्चा सुख नहीं है।
वीतरागता/समताभाव ही सच्चा सुख है । यह सुख यथार्थ श्रद्धा के साथ ही उत्पन्न होता है। यथार्थ श्रद्धा आत्मानुभवपूर्वक ही होती