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गुणस्थान विवेचन
गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन - १. कोई अविरत सम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज हो, यदि वे अपने त्रिकाली निज शुद्धात्मा का विशिष्ट पुरुषार्थ पूर्वक ध्यान करते हैं तो वे तुरंत अगले समय में सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में गमन करते हैं अर्थात् भावलिंगी मनिराज बन जाते हैं।
चतुर्थ गुणस्थान में तो एक कषाय चौकड़ी के अभाव से उत्पन्न वीतराग परिणति सहित थे और सातवें में जाते ही तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त महान वीतरागता के अपूर्व आनंद का रसास्वादन करने लगते हैं।
३६. प्रश्न : क्या चौथे से सातवें गुणस्थान में जानेवाले मुनिराज को यह अपूर्व परिवर्तन समझ में आता है ?
उत्तर : क्यों नहीं ? अवश्य समझ में आता है। जो आत्मा क्रोधादि विभावभावों का अनुभव कर सकता है तो वही आत्मा चारित्र गुण के व्यक्त सुखद स्वभाव परिणमन का अनुभव क्यों नहीं कर सकेगा? यथा पदवी व्यक्त वीतरागता से उत्पन्न आनंद का अनुभव मुनिराज अवश्य करते ही हैं। उन्हें गुणस्थान को जानने का विकल्प नहीं होता; अतः गुणस्थान का ज्ञान नहीं होता।
२. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज अथवा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती व्रती द्रव्यलिंगी श्रावक चौथे गुणस्थान से देशविरत नामक पंचम गुणस्थान में भी प्रवेश/गमन कर सकते हैं। ____ पहले से चौथे गुणस्थान में प्रवेश करना हो अथवा चौथे से ऊपर के किसी भी गुणस्थान में प्रवेश करना हो, तो निज शुद्धात्मा का ज्ञान तथा ध्यान अनिवार्य है। शुद्धोपयोग पूर्वक ही चतुर्थ गुणस्थान में व इससे ऊपर के गुणस्थानों में जाना सम्भव है। ऐसा होने पर जहाँ जितने कर्मों का उपशम, क्षयोपशम, क्षय होना होता है, वे सभी कार्य भी एक साथ अपने आप ही हो जाते हैं।
३७. प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थान से सातवें अप्रत्तसंयत गुणस्थान में और चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में द्रव्यलिंगी मुनिराज ही गमन करते हैं; ऐसा क्यों कहा ? कोई भी व्रती
अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान
११७ या अव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावक सातवें में गमन करके छठवें गुणस्थान में आकर बाह्य दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण क्यों नहीं कर सकते ?
उत्तर : जब तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप अभावपूर्वक वीतरागता व्यक्त होती है, तब कपड़े पहनने का राग परिणाम ही नहीं रहता और रागभाव नहीं रहने से कपड़े आदि बाह्य परिग्रह भी नहीं रहते - यही सुमेल है। राग परिणाम कपड़े पहनने का काम कराता है, जब राग ही नष्ट हो गया तो कपड़े पहनेगा कौन ? बाह्य परिग्रह के अभावपूर्वक ही अप्रमत्तपने का सुमेल है। ऐसा ही दोनों में सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। इसलिए सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति के पहले ही कपड़े आदि सर्व बाह्य परिग्रह का बुद्धिपूर्वक त्याग पहले, चौथे अथवा पाँचवें गुणस्थान में कषाय के मंद, मंदतर एवं मंदतम उदय में हो ही जाता है। अत: द्रव्यलिंगी मुनिराज ही सातवें गुणस्थान में गमन करते हैं।
३८. प्रश्न : आपके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि द्रव्यलिंग प्रथम होता है और भावलिंग की प्राप्ति बाद में होती है। क्या आप यही कहना चाहते हैं ?
उत्तर : हाँ, द्रव्यलिंगपूर्वक ही भावलिंग होता है; ऐसा ही वस्तुस्वरूप है।
३९. प्रश्न : सामान्य जनों के लिए तो द्रव्यलिंगपूर्वक भावलिंग होने का नियम ठीक है; पर तीर्थंकर आदि महापुरुषों को तो पहले भावलिंग हो जाता होगा?
उत्तर : नहीं, एक होय तीन काल में, परमारथ का पंथ ।
जिनधर्म में तो किसी विशिष्ट व्यक्ति के लिए भी मोक्षमार्ग या मोक्षप्राप्ति के उपाय में कुछ छूट नहीं है । वस्तुस्वरूप तो सब के लिए समान ही होता है। जैसे - वैराग्य उत्पन्न होनेपर तीर्थंकर होनेवाले युवा महावीर ने भी वन में जाकर अलंकार, मुकुट आदि आभूषण और वस्त्रों का बुद्धिपूर्वक त्याग किया; केशलोंच करके दिगम्बर मुनि हुए।
इसतरह द्रव्यलिंग को धारण करके मुनि होकर वे ध्यान में बैठ गये और शुद्धोपयोग में अपने निज शुद्धात्मा का ध्यान कर लिया, तब ही तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुए थे और भावलिंगी मुनिराज बने थे।