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सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान
गुणस्थान विवेचन आहारकद्विक की सत्तावाले मुनिराज विशिष्ट परिणाम के धारक होते हैं। अत: वे इस सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में नहीं आते, ऐसा समझना चाहिए।
३. द्वितीय गुणस्थानवी जीव के सासादनसम्यक्त्वरूप भाव/परिणाम को पारिणामिक भाव भी कहते हैं; क्योंकि जीव का जो परिणाम कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा से रहित होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार सासादन सम्यक्त्वरूप परिणाम दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा के बिना ही होता है। अतः दर्शनमोहनीयकर्म की अपेक्षा इस दूसरे गुणस्थान के भाव को पारिणामिक भाव भी कहते हैं।
मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान पर्यंत के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से हैं। दूसरे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के उदयादि की अपेक्षा नहीं हैं, अतः दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा यहाँ पारिणामिकपना घटित होता है। जहाँ जिस अपेक्षा से कथन किया हो, वहाँ उस अपेक्षा से समझ लेना चाहिए।
.सासादन गुणस्थान का काल औपशमिक सम्यक्त्व का ही काल है।
. मिथ्यात्वदर्शनमोहनीय परिणाम के निमित्त से प्रथम गुणस्थान में बन्धनेवाली सोलह कर्म प्रकृतियों का यहाँ बन्ध नहीं होता।
• अनन्तानुबन्धी कषायरूप औदयिक परिणामों से बन्धनेयोग्य पच्चीस प्रकृतियों का यहाँ बन्ध होता है। __पंडितप्रवर टोडरमलजी का सासादन गुणस्थान संबंधी सूक्ष्म चिंतन भी विशेष महत्त्व रखता है। अत: उनके शब्दों में ही हम आगे दे रहे हैं (पृष्ठ ३३६)
“यहाँ प्रश्न है कि अनन्तानुबन्धी तो चारित्रमोह की प्रकृति है, सो चारित्र का घात करे, इससे सम्यक्त्व का घात किस प्रकार सम्भव है ? ___समाधान - अनन्तानुबंधी के उदय से क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं, कुछ अतत्त्वश्रद्धान नहीं होता; इसलिये अनन्तानुबन्धी चारित्र ही का घात करती है, सम्यक्त्व का घात नहीं करती। सो परमार्थ से है तो ऐसा ही; परन्तु
अनन्तानुबंधी के उदय से जैसे क्रोधादिक होते हैं वैसे क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते - ऐसा निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। जैसे - त्रसपने की घातक तो स्थावरप्रकृति ही है। परन्तु त्रसपना होने पर एकेन्द्रियजातिप्रकृति का भी उदय नहीं होता है, इसलिये उपचार से एकेन्द्रियप्रकृति को भी त्रसपने का घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है। उसीप्रकार सम्यक्त्व का घातक तो दर्शनमोह है; परन्तु सम्यक्त्व होने पर अनन्तानुबंधी कषायों का भी उदय नहीं होता, इसलिये उपचार से अनन्तानंबंधी के भी सम्यक्त्व का घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।
यहाँ फिर प्रश्न है कि अनन्तानबंधी सम्यक्त्व का घात नहीं करती है तो इसका उदय होने पर सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर सासादन गुणस्थान को कैसे प्राप्त करता है? पृष्ठ -३३७
समाधान - जैसे किसी मनुष्य के मनुष्यपर्याय के नाश का कारण तीव्र रोग प्रगट हुआ हो, उसको मनुष्यपर्याय का छोड़नेवाला कहते हैं। तथा मनुष्यपना दूर होने पर देवादिपर्याय हो, वह तो रोग अवस्था में नहीं हुई। यहाँ मनुष्य ही का आयु है। उसीप्रकार सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व के नाश का कारण अनन्तानुबंधी का उदय प्रगट हआ, उसे सम्यक्त्व का विरोधक सासादन कहा। तथा सम्यक्त्व का अभाव होने पर मिथ्यात्व होता है, वह तो सासादन में नहीं हआ। यहाँ उपशमसम्यक्त्व का ही काल है - ऐसा जानना।
इसप्रकार अनन्तानुबंधी चतुष्टय की सम्यक्त्व होने पर अवस्था होती नहीं, इसलिये सात प्रकृतियों के उपशमादिक से भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कही जाती है।"
धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १६४) सामान्य से सासादन सम्यग्दृष्टि जीव हैं।।१०।।
सम्यक्त्व की विराधना को आसादन कहते हैं। जो इस आसादन से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं। किसी एक अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है; किन्तु जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है; फिर भी मिथ्यात्व गुणस्थान के अभिमुख है, उसे सासादन कहते हैं।