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________________ ८४ मिथ्यात्व गुणस्थान गुणस्थान विवेचन निकट भव्य हो, जिसका अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल से अधिक संसार भ्रमण शेष हो, उसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है। ज्ञानी हो अर्थात् साकार उपयोगवान हो, निराकार दर्शन उपयोगी को सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है। ऐसे जीव को सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है।" २. मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती सभी जीव बहिरात्मा ही हैं। आत्मा को आत्मा न मानकर शरीरादि पर वस्तुओं में जो अपनत्वादि करते हैं, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं। प्रथम तीन गुणस्थानवर्ती जीव बहिरात्मा ही हैं। बहिरात्मा नियम से दु:खी तो हैं ही, उन्हें पापी भी कहते हैं। ३. कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र के उपासक सभी गृहीत मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। रागी-द्वेषी देवी-देवताओं के किसी भक्त का विशेष पुण्योदय हो और वचनादि चतुराई से बाह्य में कुभेष धारण करके अनेक लोगों का गुरु बन गया हो; हजारों और लाखों बड़े धनवान, राजादिक भी उसके अनुयायी हो गए हों तो भी सर्वज्ञ भगवान के आज्ञानुसार वह मिथ्यादृष्टि, पापी, बहिरात्मा, संसारमार्गी ही है; ऐसे गुरु नामधारी लोगों के प्रभाव में आना मिथ्यात्वभाव का स्पष्ट पोषण करना ही है।, ___ दया, सज्जनता, परोपकार, देशसेवा तथा सामाजिक कार्य इत्यादि लौकिक कार्यों से समाज में श्रेष्ठ हो जाना, यश प्राप्त कर लेना अलग बात है और तत्त्वज्ञ बनकर मोक्षमार्गी हो जाना अलग बात है। आत्मार्थी, धर्ममार्गी का लौकिक यश-प्रतिष्ठा आदि से कुछ भी संबंध नहीं है। लौकिक में अतिशय महान व्यक्ति मिथ्यादृष्टि हो सकता है और समाज में जिसे कोई पहिचानता ही न हो, अतिशय उपेक्षित हो, वह भी मोक्षमार्गी हो सकता है। संक्षेप में इतना समझ लेना चाहिए कि पूर्वबद्ध पुण्योदय के कारणमात्र से कोई धार्मिक नहीं हो सकता। ४. मिथ्यादृष्टि मनुष्य गर्भकाल सहित आठ वर्ष पर्यंत मिथ्यात्व नष्ट करने में असमर्थ रहता है। संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त तथा संमूर्छन तिर्यंच अंतर्मुहर्त पर्यंत मिथ्यात्व नष्ट करने में असमर्थ रहता है। देव नारकी भी अंतर्मुहर्त पर्यंत मिथ्यात्व नष्ट करने में असमर्थ रहते हैं। विशिष्ट काल व्यतीत होने पर विशिष्ट पात्रता के बाद पुरुषार्थ पूर्वक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर सकते हैं। धवला पुस्तक१का अंश (पृष्ठ १६२-१६३) सामान्य से गुणस्थान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव हैं।।९।। जिनदेव संपूर्ण प्राणियों का अनुग्रह करनेवाले होते हैं; क्योंकि वे वीतराग हैं। 'मिथ्यादृष्टि जीव हैं' यहाँ पर मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवों के विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। जितने भी वचन-मार्ग हैं उतने ही नय-वाद अर्थात् नय के भेद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर-समय (अनेकान्त-बाह्य-मत) होते हैं। ___इस वचन के अनुसार मिथ्यात्व के पांच ही भेद हैं यह कोई नियम नहीं समझना चाहिए; किन्तु मिथ्यात्व पांच प्रकार का है, यह कहना उपलक्षणमात्र है। अथवा, मिथ्या शब्द का अर्थ वितथ (खोटा) और दृष्टि शब्द का अर्थ रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय है। इसलिये जिन जीवों की रुचि असत्य में होती है उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्वभाव का अनुभव करनेवाला जीव विपरीत-श्रद्धावाला होता है। जिसप्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुर रस अच्छा मालूम नहीं होता है; उसीप्रकार उसे यथार्थ धर्म अच्छा मालूम नहीं होता है। ___ जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व कहते हैं। उसके संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत इसप्रकार तीन भेद हैं।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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