SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान विवेचन दर्शनमोहनीय नामक द्रव्यकर्म का उदय नियम से निमित्तरूप रहता है अर्थात् जब जीव मिथ्यात्व परिणाम से परिणमित होता है, तब मिथ्यात्व कर्म का उदय निमित्तरूप रहता ही है। इसलिए मिथ्यात्वभाव को औदयिकभाव भी कहते हैं; लेकिन मिथ्यात्व कर्म जीव को मिथ्यादृष्टि बनाता है/कराता है - ऐसा नहीं है। कर्म का उदय तो निमित्त मात्र ही है, अपराध तो स्वयं जीव का ही है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने 'समयसार शास्त्र की' गाथा १३२ में जीव के अपराध का बोध कराते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है - "जीवों के जो तत्त्व का अज्ञान है (वस्तुस्वरूप से अयथार्थ अर्थात् विपरीत ज्ञान) वह अज्ञान का उदय है और जीव के जो तत्त्व का अश्रद्धान है; वह मिथ्यात्व का उदय है।" जब जीव अपना अपराध देखेगा/जानेगा तो अपने अपराध को दूर करने का प्रयास करेगा। अत: जो आत्मा अपना दोष स्वीकार करता है; वही पुरुषार्थ कर सकता है/करता है। जो कर्मों का ही दोष जानता/ मानता रहेगा, वह आत्मा स्वावलंबनरूप सम्यक् पुरुषार्थ कभी कर नहीं सकेगा। जो जीव, आत्मा में होनेवाले मोह-राग-द्वेषादि विकारी भावों की उत्पत्ति में कर्मों के उदय को निमित्तरूप से भी नहीं मानता, उसकी मान्यता के अनुसार विभाव ही जीव का स्वभाव हो जायेगा और जो यह मान लेता है कि कर्म ही विकार का कर्ता है, आत्मा नहीं, वे भी कर्मों के ही आधीन हो गये। ऐसे जीव सर्वज्ञ भगवान के उपदेश का यथार्थ स्वरूप न जानने के कारण ज्ञानी नहीं हैं। अत: जीव स्वयं मिथ्यात्व तथा क्रोधादि विभाव भावों को करनेवाला अपराधी है। हाँ, जब जीव अपराध करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त होता है, यही सत्य मान्यता है, यही उपादानमूलक कथन है। शास्त्रों में जहाँ निमित्त की मुख्यता होती है, वहाँ मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व भाव होता है, ऐसा कथन जिनवाणी में मिलता है। प्रथमानुयोग आदि तीन अनुयोगों में उपादान की मुख्यता से किये गये मिथ्यात्व गुणस्थान ७३ कथन अति अल्प हैं और निमित्त की मुख्यता से किये गये कथन बहुत अधिक हैं। इसलिए अज्ञानी को ऐसा भ्रम हो जाता है कि निमित्त अर्थात् कर्म ही जीव को बलजोरी/जबरदस्ती से विकार कराता है। ___ जीव अपने विकारी अथवा अविकारी परिणामों को करने में पूर्ण स्वतंत्र है, स्वाधीन है। आत्मा बलवान है, कर्म बलवान नहीं है; इस महत्त्वपूर्ण विषय को यहाँ प्रथम गुणस्थान के प्रकरण में ही विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर देते हैं, जिससे आगे के सभी गुणस्थानों में यथास्थान यथायोग्य समझ लेना सुलभ हो जाएगा। करणानुयोग की पद्धति निमित्त की मुख्यता से कथन करने की होती है। अत: उसकी भाषा ही ऐसी होती है कि “मिथ्यात्व कर्म के उदय से/ निमित्त की बलवत्ता से ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।" ध्यान रहे, निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा कथन तो होता है, कार्य नहीं होता है। कोई भी कर्म किसी भी जीव को जबरदस्ती से क्रोधादि विकारभाव नहीं कराता है। सदा विकाररूप अधर्म और अविकाररूप धर्म करने में जीव पूर्ण स्वाधीन है, स्वतंत्र है, कर्माधीन नहीं है। जब कर्म के उदय से जीव, नीचे के गुणस्थानों में गया या विकारी हो गया; ऐसा कथन पढ़ने में व सुनने में आवे तो समझ लेना चाहिए कि जीव अपने अनादि-कालीन कुसंस्कारों के कारण पुरुषार्थहीनता से ही पतित हआ है, कर्म ने कुछ नहीं किया। मात्र उस काल में कर्म का उदय उपस्थित था। जब कर्म के अभाव से वीतरागता बढ़ गयी, जीव ने ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त किया; ऐसा कथन मिले तो वहाँ यह समझना चाहिए कि जीव ने स्वभाव के आश्रयरूप विशिष्ट पुरुषार्थ से नया विशेष धर्म प्रगट किया है। भेद - एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान - ये मिथ्यात्व के पांच भेद हैं। मिथ्यात्व के पाँचों भेदों की परिभाषायें संक्षेप में निम्नप्रकार हैं (१) जाति की अपेक्षा से जीवादि छह द्रव्य अथवा संख्या की अपेक्षा से अनंतानंत द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य अनंत धर्मात्मक होने पर अथवा परस्पर विरोधी दो धर्मात्मक होने पर भी उन्हें मात्र एक धर्मात्मक मानना, एकांत मिथ्यात्व है। जैसे - द्रव्य नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy