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________________ २८ गुणस्थान विवेचन "हे भव्य जीवो ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द या अर्थ का बांचना या सीखना, सिखाना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारम्बार चर्चा करना इत्यादि अनेक अंग हैं, वहाँ जैसे बने तैसे अभ्यास करना । यदि सर्व शास्त्रों का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र में सुगम व दुर्गम, अनेक अर्थों का निरूपण है; वहाँ जिसका बने उसका ही अभ्यास करना; परंतु अभ्यास में आलसी नहीं होना। देखो ! शास्त्राभ्यास की महिमा ! जिसके होने पर जीव परम्परा से आत्मानुभव दशा को प्राप्त होता है, जिससे मोक्षरूप फल प्राप्त होता है। यह तो दूर ही रहो, शास्त्राभ्यास से तत्काल ही इतने गुण प्रगट होते हैं १. क्रोधादि कषायों की तो मंदता होती है। २. पंचेन्द्रियों के विषयों में होनेवाली प्रवृत्ति रुकती है। ३. अति चंचल मन भी एकाग्र होता है। ४. हिंसादि पाँच पाप नहीं होते। ५. स्तोक (अल्प) ज्ञान होने पर भी त्रिलोक के तीन काल संबंधी चराचर पदार्थों का जानना होता है। ६. हेय-उपादेय की पहचान होती है। ७. आत्मज्ञान सन्मुख होता है। (ज्ञान आत्मसन्मुख होता है।) ८. अधिक-अधिक ज्ञान होने पर आनन्द उत्पन्न होता है। ९. लोक में महिमा/यश विशेष होता है। १०. सातिशय पुण्य का बंध होता है। इतने गुण तो शास्त्राभ्यास करने से तत्काल ही प्रगट होते हैं, इसलिए शास्त्राभ्यास अवश्य करना । २८. प्रश्न : हे भव्य ! शास्त्राभ्यास करने के समय की प्राप्ति महादुर्लभ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका द्रव्य अपेक्षा से तो लोक में मनुष्य जीव बहुत थोड़े हैं, तुच्छ संख्यातमात्र ही हैं और अन्य जीवों में निगोदिया अनन्त हैं, दूसरे जीव असंख्यात हैं। क्षेत्र अपेक्षा से मनुष्यों का क्षेत्र बहुत स्तोक (थोड़ा ही) अढ़ाई द्वीप मात्र है और अन्य जीवों में एकेन्द्रियों का क्षेत्र सर्व लोक है; दूसरों का कितने ही राजू प्रमाण है। काल अपेक्षा से मनुष्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि अपेक्षा पृथक्त्व कोटिपूर्व मात्र है और अन्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल - एकेन्द्रियों में तो असंख्यात पुद्गलपरावर्तनमात्र और अन्यों में संख्यात पल्यमात्र है। भाव अपेक्षा से तीव्र शुभाशुभपनेसे रहित ऐसे मनुष्य पर्याय के कारणरूप परिणाम होना अतिदुर्लभ हैं। अन्य पर्याय के कारण अशुभरूप वा शुभरूप परिणाम होना सुलभ हैं। इसप्रकार शास्त्राभ्यास का कारण जो पर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्य पर्याय, उसका दुर्लभपना जानना। वहाँ उत्तम निवास, उच्चकुल, पूर्ण आयु, इन्द्रियों की सामर्थ्य, निरोगपना, सुसंगति, धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादि की प्राप्ति होना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है। यह प्रत्यक्ष दिख रहा है और इतनी सामग्री मिले बिना ग्रन्थाभ्यास बनता नहीं है । सो तुमने भाग्य से यह अवसर पाया है; इसलिये तुमको हठ से भी तुम्हारे हित के लिये प्रेरणा करते हैं। जैसे हो सके वैसे इस शास्त्र का अभ्यास करो, अन्य जीवों को जैसे बने वैसे शास्त्राभ्यास कराओ और जो जीव शास्त्राभ्यास करते हैं, उनकी अनुमोदना करो। पुस्तक लिखवाना वा पढ़ने-पढ़ानेवालों की स्थिरता करना, इत्यादि शास्त्राभ्यास के बाह्यकारण, उनका साधन करना; क्योंकि उनके द्वारा भी परम्परा कार्यसिद्धि होती है व महान पुण्य उत्पन्न होता है। इसप्रकार इस शास्त्र के अभ्यासादि में जीवों को रुचिवान किया। * उत्तर : एकेन्द्रियादि असंज्ञी पर्यन्त जीवों को तो मन ही नहीं है; नारकी वेदना से पीड़ित, तिर्यंच विवेक रहित, देव विषयासक्त; इसलिए मनुष्यों को अनेक सामग्री मिलने पर ही शास्त्राभ्यास होता है। इस मनुष्य पर्याय की प्राप्ति ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से महादुर्लभ है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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