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गुणस्थान विवेचन
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इसप्रकार क्षयोपशम सम्यक्त्व का स्वरूप कहा।
तथा तीनों प्रकृतियों के सर्वथा सर्व निषेकों का नाश होने पर अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थश्रद्धान हो, सो क्षायिकसम्यक्त्व है। सोचतुर्थादिचार गुणस्थानों में कहीं क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि को इसकी प्राप्ति होती है।
कैसे होती है ? सो कहते हैं - प्रथम तीन करण द्वारा वहाँ मिथ्यात्व के परमाणुओं को मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा करे; - इसप्रकार मिथ्यात्व की सत्ता नाश करे । तथा मिश्रमोहनीय के परमाणुओं को सम्यक्त्व मोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा करे - इसप्रकार मिश्र मोहनीय का नाश करे । तथा सम्यक्त्व मोहनीय के निषेक उदय में आकर खिरें, उसकी बहुत स्थिति आदि हो तो उसे स्थिति-काण्डकादि द्वारा घटाये । जहाँ अन्तर्मुहूर्त स्थिति रहे तब कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो । तथा अनुक्रम से इन निषेकों का नाश करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होता है।
सो यह प्रतिपक्षी कर्म के अभाव से निर्मल है व मिथ्यात्वरूप रंजना के अभाव से वीतराग है। इसका नाश नहीं होता। जबसे उत्पन्न हो तबसे सिद्ध अवस्था पर्यन्त इसका सद्भाव है। इसप्रकार क्षायिकसम्यक्त्व का स्वरूप कहा।
३. नववे क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कर्मप्रकृतियों का स्तिबुक संक्रमण होकर परमुख से अभाव हो जाता है। अर्थात् इन आठ घातिरूप पापप्रकृतियों का द्रव्य इनकी क्षपणा काल में समय-समय प्रति एक-एक फालिका संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ व पुरुषवेदरूप कर्म में संक्रमित हो-होकर दोनों कषाय चौकड़ियों का क्षय हो जाता है।
४. तदनन्तर इस क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही दर्शनावरण कर्म के निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि इन तीन कर्मों का क्षय हो जाता है।
५. पश्चात् नववें गुणस्थान में ही स्त्रीवेद और नपुंसकवेद कर्म का द्रव्य पुरुषवेद कर्म में संक्रमित हो जाता है। तत्पश्चात् पुरुषवेद तथा हास्यादि छह (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) - इन सातों कर्मों का संक्रमण संज्वलन क्रोध कषाय कर्मों में होता है। इसतरह नौ नोकषायों का क्षय हो जाता है।
घातिकर्मों के क्षय का विवरण
अब चारित्रमोहनीय कर्मों में से मात्र संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों की ही सत्ता शेष रही है। उनके क्षय का क्रम निम्नानुसार है -
६. नौवें गुणस्थान में ही संज्वलन क्रोध कषाय कर्म का संक्रमण संज्वलन मान कषाय में होता है। तदनंतर संज्वलन मान कषाय का संक्रमण संज्वलन माया कषाय में हो जाता है। और अंत में संज्वलन माया कषाय का संक्रमण लोभ कषाय कर्म में हो जाने पर संज्वलन क्रोध, मान और माया इन तीन कषायों का संक्रमण हो-होकर क्षय हो जाता है। संज्वलन लोभ कषाय कर्म का संक्रमण नहीं होता है। संक्रमित होने के लिए यहाँ (नववें गुणस्थान के उपान्त्य समय में) अन्य चारित्रमोहनीय कर्म की सत्ता भी शेष नहीं रही है। चारित्रमोहनीय कर्म का संक्रमण अन्य सात कर्मों में भी नहीं होता है। अतः संज्वलन लोभ कषाय कर्म का क्षय स्वमुख से ही होता है।
पूर्वोक्त प्रकार नौवें क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही चारित्रमोहनीय कर्म की २० प्रकृतियों का क्षय हो जाता है।
७. दसवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही मात्र संज्वलन लोभ कषाय कर्म सूक्ष्म लोभरूप से उदय में आरहा है। बादर लोभ कषाय कर्म का सूक्ष्मकृष्टिकरण का कार्य नववें गुणस्थान में ही संपन्न हो गया था। दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में सूक्ष्म लोभ कषाय का भी क्षय हो जाता है।
८. अब बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही मोहकर्म तथा मोहपरिणामों के सर्वथा अभाव से मुनिराज पूर्ण वीतरागी हो गये हैं। अब मोहनीय कर्म के बिना मात्र तीन घाति कर्मों की सत्ता शेष है। दर्शनावरण के नौ कर्मों में से छह कर्म ही शेष हैं। उनमें से निद्रा और प्रचला-इन दो कर्मों का बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है।
९. क्षीणकषाय गुणस्थान के अंतिम समय में ज्ञानावरण कर्म की मतिज्ञानावरणादि ५ प्रकृतियाँ, दर्शनावरण कर्म की चक्षुदर्शनावरणादि ४ प्रकृतियाँ और अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ - कुल मिलाकर १४ कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है।
इसतरह घाति कर्मों के क्षपणा/क्षय का विवरण पूर्ण हुआ। *