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गुणस्थान विवेचन यहाँ सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये हैं। यही कारण सम्यक्त्व के परमावगाढ़पने में है।
९. यहाँ 'सयोग' शब्द अंत दीपक है। अतः प्रथम गुणस्थान से लेकर इस तेरहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव सयोगी / योगसहित ही हैं। इसे निम्नानुसार स्पष्ट समझ सकते हैं - सयोग मिथ्यात्व, सयोग सासादनसम्यक्त्व, सयोग मिश्र आदि ।
१०. "केवली” शब्द आदि दीपक है। तेरहवें गुणस्थान में व्यक्त हुआ केवलज्ञान अर्थात् केवलीपना वह आगे के चौदहवें गुणस्थान में और सिद्धालय में भी अनंत काल पर्यंत सतत ध्रुव और अचलरूप से रहनेवाला है। जैसे- अयोगकेवली, सिद्धकेवली ।
११. यहाँ चारों घाति कर्मों का अभाव हो जाने से सयोगकेवली अरहंत परमात्मा को जीवन मुक्त भी कहते हैं। अभी चारों अघाति कर्मों की सत्ता और उदय होने से एवं असद्धित्व भाव के कारण मुक्तावस्था नहीं हुई है।
१२. भव्य जीवों के भाग्यवश ही भगवान का विहार होता है। केवली भगवान के विहार के व्यवस्थापक कोई इंद्रादिक नहीं हैं। जिन जीवों की मोक्षमार्ग प्राप्त करने की पात्रता पक गयी है, उन्हें सहज ही सर्वोत्तम निमित्त मिलते ही हैं। अतः पात्र जीवों की ओर भगवान का विहार एवं उनके लिए उपदेश स्वयं होता है। पण्डित दौलतरामजी ने कहा भी है - भवि भागन वच जोगे वशाय तुम ध्वनि...... ।
१३. पाँच इन्द्रियप्राणों का व मनोबल का विनाश तो क्षीणमोह गुणस्थान के अन्त में हो जाता है। वचनबल और श्वासोच्छवास प्राण का विनाश सयोगकेवली के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है। कायबल का विनाश सयोगकेवली के अन्त में होता है एवं आयुप्राण का विनाश अयोगकेवली गुणस्थान के अन्त में होता है।
तेरहवें के अन्त में अर्थात् चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही आत्मा के सर्व प्रदेश स्थिर अर्थात् अकम्प होने से शरीर से किंचित् न्यून
सयोगकेवली गुणस्थान
आकारवाले हो जाते हैं। सिद्ध अवस्थायोग्य आत्म-प्रदेशों का आकार नारियल में सूखे गोले के समान किंचित् न्यून हो जाता है।
११०. प्रश्न: सयोगकेवली परमात्मा के कितने और कौनसे कर्मों का नाश हो गया है ?
उत्तर : तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा की अवस्था में नवीन एक भी कर्म प्रकृति का नाश नहीं होता। इसका स्पष्टीकरण - ज्ञानावरणादि चारों घाति कर्मों की कुल मिलाकर संख्या सैंतालीस है (ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की ९, मोहनीय की २८ और अंतराय की ५ ) - इनका नाश तेरहवें गुणस्थान के पहले यथास्थान हो चुका है।
अघाति कर्मों में से निम्नांकित सोलह प्रकृतियाँ भी यहाँ नहीं हैं - (१) नरकायु (२) तिर्यंचायु (३) देवायु इन तीनों आयु कर्म का यहाँ अस्तित्व ही नहीं पाया जाता। नामकर्म की - (१) नरकगति ( २ ) नरकगत्यानुपूर्वी (३) तिर्यंचगति (४) तिर्यंचगत्यानुपूर्वी (५) द्विइन्द्रिय (६) त्रिइन्द्रिय (७) चतुरिन्द्रिय (८) उद्योत (९) आतप (१०) एकेंद्रिय (११) साधारण (१२) सूक्ष्म और (१३) स्थावर । आयुकर्म की तीन और नामकर्म की तेरह मिलकर सोलह प्रकृतियाँ, घातिकर्म की ४७ + अघाति कर्म १६ = ६३.
धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १९१ से १९२) सामान्य से सयोगकेवली जीव हैं ।। २१ ।।
केवल पद से यहाँ पर केवलज्ञान का ग्रहण किया है।
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३३. शंका - नाम के एकदेश के कथन करने से संपूर्ण नाम के द्वारा कहे जानेवाले अर्थ का बोध कैसे संभव है ?
समाधान - नहीं; क्योंकि बलदेव शब्द के वाच्यभूत अर्थ का, उसके एकदेशरूप 'देव' शब्द से भी बोध होना पाया जाता है। इसतरह प्रतीति-सिद्ध बात में, ‘यह नहीं बन सकता है' इसप्रकार कहना निष्फल है, अन्यथा सब जगह अव्यवस्था हो जायेगी ।