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गुणस्थान विवेचन अनादि भूतकालीन सर्व पदार्थों को और भविष्यकालीन अनंतानंत सर्व पदार्थों को भी अर्थात् सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को युगपत् एक ही समय में प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट जानता है।
अनंत ज्ञान, दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व एवं चारित्र को अनंतचतुष्टय कहते हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य को पाँचलब्धि कहते हैं। इस तरह चतुष्टय और पंचलब्धि मिलकर क्षायिक नवलब्धि हो जाते हैं। इन केवलज्ञानादि नवलब्धि सहित तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली होते हैं। इन्हें ही सकल परमात्मा कहते हैं। इन ही अरहंत तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमायें जिनमंदिर में विराजमान की जाती हैं; जो सबको पूज्य होती हैं। नाम अपेक्षा विचार -
सयोगकेवली परमात्मा के ही अरिहंत, अरहंत, अरुहंत, केवली, परमात्मा, सकल परमात्मा, सयोगीजिन, परमज्योति, सर्वज्ञ, जिनेन्द्रदेव, जीवनमुक्त, आप्त आदि एक हजार आठ नाम कहे गये हैं।
१. मिथ्यात्व और क्रोधादि विभाव भावरूपी शत्रुओं को (अरि = शत्रु, हंत = नष्ट करनेवाले) जो नष्ट करते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं।
२. जो सर्व जीवों से पूजनीय एवं आदर्श हैं. उन्हें अरहंत कहते हैं। आचार्य कुंदकुंद ने अपने ग्रंथों में मुख्य रीति से अरहंत शब्द का प्रयोग किया है।
३. जिनका पुनः जन्मरूप से उत्पन्न होना नष्ट हो गया है, उन्हें अरुहंत कहते हैं।
४. जो जिनेन्द्र भगवान योग सहित हैं; उन्हें सयोगीजिन कहते हैं।
५. जो परमात्मा होने पर भी कल अर्थात् शरीर सहित हैं, उन्हें सकल परमात्मा कहते हैं।
६. जो जीव केवलज्ञान सहित हैं, उन्हें केवली कहते हैं।
७. केवलज्ञान की मुख्यता से ही अरहंत को परमज्योति आदि कहते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
तेरहवें गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है; तथापि सयोगकेवली
सयोगकेवली गुणस्थान गुणस्थानवर्ती परमात्मा के केवलज्ञान के कारण क्षायिक सम्यक्त्व को ही परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं।
चारित्र अपेक्षा विचार - परम यथाख्यात चारित्र । क्षीणमोह गुणस्थान में श्रद्धा तथा चारित्र गुण का पूर्ण निर्मल परिणमन होने के कारण यथाख्यात चारित्र हुआ था । अब तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान के निमित्त से उसी चारित्र को परम यथाख्यात कहते हैं। काल अपेक्षा विचार -
जघन्यकाल - अंतर्मुहूर्त । तीर्थंकर सयोगकेवली को छोड़कर अन्य परमगुरु कम से कम अपना जीवन अंतर्मुहूर्त पर्यंत यहाँ सयोगकेवली अवस्था में व्यतीत करते हैं। कोई भी सयोगकेवली जिनेन्द्र अंतर्मुहूर्त से कम कालावधि में तेरहवें गणस्थान को छोड़कर चौदहवें गुणस्थान में गमन नहीं कर सकते। ___इन अरहंत सयोगी परमात्मा का दिव्यध्वनि से उपदेश हो या न हो; विहार हो या न हो अथवा अंतःकृतकेवली हो; सभी सयोगकेवली परमात्माओं का तेरहवें गुणस्थान का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त ही है।
तीर्थंकर सयोगकेवली परमात्मा का जघन्यकाल वर्ष पृथक्त्व अर्थात् ३ वर्ष से लेकर ९ वर्ष के अंदर ही होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि तीर्थंकर सयोगकेवली परमात्मा का जघन्य विहार काल भी वर्ष पृथक्त्व ही होता है।
उत्कृष्टकाल - गर्भकाल सहित आठ वर्ष तथा आठ अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि काल । इतना दीर्घ काल तेरहवें गुणस्थान का कैसे होता है, इसका स्पष्टीकरण - ___ जो एक पूर्व कोटि वर्ष की उत्कृष्ट आयु के धारक कर्मभूमिज कोई श्रेष्ठ पुरुष गर्भकाल सहित आठ वर्ष के होते ही दीक्षा लेकर केवल आठ अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत मुनिजीवन में आत्मसाधना करके जो सयोगकेवली गुणस्थान को प्राप्त हुए हैं; वे जिनेन्द्र परमात्मा अपनी मनुष्यायु के अंत पर्यंत दिव्यध्वनि से उपदेश करते हुए विहार करते हैं।