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सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान
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गुणस्थान विवेचन धुले हुए कौसुंभी वस्त्र की सूक्ष्म लालिमा के समान सूक्ष्म लोभ का वेदन करनेवाले उपशमक अथवा क्षपक जीवों के यथाख्यात चारित्र से किंचित् न्यून वीतराग परिणामों को सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।
कौसुंभी वस्त्र लाल रंग का होता है। उस वस्त्र को पानी से धो लेने पर उसकी लालिमा कम हो जाती है। उस धुले हुए कौसुंभी वस्त्र की लालिमा के समान सूक्ष्मलोभ परिणाम का वेदन मुनिराज करते हैं अर्थात् सूक्ष्मलोभ कषाय कर्म के उदय से महामुनिराज को अबुद्धिपूर्वक उत्तरोत्तर हीन-हीन सुक्ष्मलोभ परिणाम होता रहता है।
वैसे तो सातवें अप्रमत्त गुणस्थान से ही मुनिराज निज सहजानंदमय शुद्धात्मा का वेदन/अनुभवन करते हैं; तथापि पूर्ण वीतरागतारूप यथाख्यात चारित्र की कमी का दिग्दर्शन कराने के उद्देश्य से सूक्ष्मलोभ का वेदन करने वाले ऐसा कथन अशुद्धनिश्चयनय से आचार्यश्री नेमिचंद्र ने इस गाथा में किया है। इसे ही अध्यात्म की अपेक्षा व्यवहारनय का कथन कहते हैं।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार कषाय, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार कषाय और संज्वलन क्रोध, मान और माया ये कुल मिलाकर ११ कषाय और हास्यादि ९ नोकषायों के अनुदयपूर्वक व्यक्त होनेवाला वीतराग परिणाम दसवें गुणस्थान का यथार्थ स्वरूप नहीं है। वह वीतरागता सूक्ष्मलोभ के साथ हो तो दसवाँ गुणस्थान होता है; क्योंकि दसवें गुणस्थान का नाम ही सूक्ष्मसांपराय है। सांपराय शब्द का अर्थ कषाय होता है।
९४. प्रश्न : यदि सूक्ष्म लोभ को गौण किया जाय तो क्या कुछ दोष है ?
उत्तर : यदि सूक्ष्म लोभ को गौण किया जाय तो दसवें गुणस्थान में ही पूर्ण वीतरागता का स्वीकार करना अनिवार्य हो जायगा और फिर चौदह गुणस्थानों की जगह गुणस्थान तेरह ही रह जायेंगे, जो आगम को मान्य नहीं है। करणानुयोग में केवली भगवान की आज्ञा की प्रधानता रहती है, इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है।
दसवें गुणस्थान का पूर्ण नाम “सूक्ष्मसांपराय प्रविष्टशुद्धिसंयत है।"
भेद अपेक्षा विचार -
श्रेणी की अपेक्षा इसके दो भेद हैं - १. उपशमक सूक्ष्मसांपराय २. क्षपक सूक्ष्मसापराय।
१. जिस वीतराग परिणाम में मात्र सूक्ष्मसांपरायरूप कलंक अर्थात् राग शेष है और अन्य सर्व कषाय-नोकषायों का सर्वथा उपशम हो गया है; उसे उपशमक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।
२. जिस वीतराग परिणाम में मात्र सूक्ष्मसांपराय रूप कलंक अर्थात् राग शेष है और अन्य सर्व कषाय-नोकषायों का सर्वथा क्षय अर्थात् नाश हो गया है; उसे क्षपक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।
सूक्ष्मसापराय प्रविष्टशुद्धिसंयत संबंधी स्पष्टीकरण :
सूक्ष्म = अत्यन्त हीन अनुभाग । साम्पराय = कषाय । प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त । शुद्धि = शुद्धोपयोग । संयत = शुद्धात्मस्वरूप में सम्यक्तया लीन । ___ अत्यन्त हीन अनुभाग सहित लोभकषाय के वेदन सहित, विशिष्ट वृद्धिंगत; शुद्धात्मस्वरूप में लीन, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव, सूक्ष्मसांपराय प्रविष्टशुद्धिसंयत हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
द्वितीयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व, इन दोनों सम्यक्त्वों में से कोई भी एक सम्यक्त्व यहाँ रहता है। यदि मुनिराज उपशमक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती हैं तो उन्हें द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - इन दोनों में से कोई एक सम्यक्त्व रहता है। यदि मुनिराज क्षपक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती हैं तो उन्हें नियम से क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है। चारित्र अपेक्षा विचार -
सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में उपशमक को औपशमिक चारित्र और क्षपक को क्षायिक चारित्र होता है। इस ही चारित्र को सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र भी कहते हैं; क्योंकि यहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय एवं तदनुसार सूक्ष्म लोभ परिणाम होता है। (विशेष के लिए देखें - धवला पुस्तक