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गुणस्थान विवेचन
संज्वलन कषाय अन्त तक नष्ट नहीं होती, दसवें गुणस्थान तक जमी रहती है; इस अपेक्षा उसे बलवान कहा जाय तो कोई दोष नहीं है। वैसे तो अनंतानुबंधी को ही बलवान माना जाता है; क्योंकि वह अनन्त संसार का अनुबंध कराती है और मिथ्यात्व की सहचारिणी है।
चारित्रमोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियों में से जिस कर्म का नाश (उपशम या क्षय) पहले होता है, उसे अन्य कर्मों की अपेक्षा बलहीन माना है। इस युक्ति के आधार से संज्वलन कषायों के पहले अनंतानुबंधी आदि कषायों का उपशम या क्षय हो जाता है; इस कारण वे अनंतानुबंधी आदि कषायें संज्वलन कषायों से बलहीन सिद्ध हो जाती हैं।
जब जीव निजशुद्धात्मसन्मुख होता है, तब अध:करण आदि परिणामों द्वारा औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। उसीसमय दर्शनमोह उपशमित होता है और अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का भी स्वयमेव अप्रशस्त उपशम हो जाता है। दर्शनमोह को मरता हुआ जानकर मानो अनन्तानुबन्धी स्वतः मर जाती हैं।
विशेष इतना है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय अधःकरणादि त्रिकरण परिणामपूर्वक ही अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी अन्य २१ कषाय, ९ नौकषायों में विसंयोजित हो जाती है। यहाँ अनंतानुबंधी के विसंयोजन के लिए स्वतंत्र पुरुषार्थ अपेक्षित है।
अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण - आठों कषायकर्म एक साथ संज्वलन कषाय चतुष्क तथा पुरुषवेदरूप में अपने को परिवर्तित करके समाप्त हो जाते हैं।
संज्वलन आदि चारों कषायें एक साथ नष्ट नहीं होती। क्रोध कर्म, मान में बदलता है; मान, माया कर्मरूप हो जाता है; माया, लोभ में संक्रमित होती है; मात्र लोभ कषायकर्म किसी अन्यरूप नहीं होता। अतः संज्वलन लोभ का भी अंश जो सूक्ष्मलोभ वह अधिक बलवान है; जो सबसे अंत में नष्ट होता है।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान
२०३ ८९. प्रश्न : इस युक्ति से तो चारित्रमोहनीय कर्म से भी दर्शनमोहनीय कर्म हीन शक्तिवाला सिद्ध हो जाता है।
उत्तर : हाँ, आपका कहना सही है। यदि दर्शनमोहनीय कर्म चारित्रमोहनीय कर्म से शक्तिहीन नहीं होता तो मुनिराज दर्शनमोहनीय का उपशम या क्षय करके चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय के लिये श्रेणी के काल में कटिबद्ध क्यों और कैसे होते?
इसलिए मोक्षमार्गी, साधक, आत्मार्थी जीव जब कर्मों से लड़ना प्रारंभ करता है; तब आठों कर्मों में से मोहनीय कर्म से ही सबसे पहले लड़ना प्रारंभ करता है। मोहनीय कर्मों में भी दर्शनमोहनीय से युद्ध करके उसे ही सबसे पहले पराजित करता है और स्वयं विजयी अर्थात् सम्यक्त्वी होता है। अतः दर्शनमोहनीय कर्म स्वयं शक्तिहीन सिद्ध हो जाता है।
९०. प्रश्न : करणानुयोग में तो तर्क, हेतु, युक्ति के लिए अवकाश ही नहीं हैं; यहाँ तो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा ही मुख्य रहती है। आप करणानुयोग के विषय में तर्क का उपयोग क्यों कर रहे हो?
उत्तर : करणानुयोग शास्त्र में तर्क नहीं चलता, यह बात सच है; पर समझने-समझाने के लिये आचार्यों ने भी आगम-गर्भित युक्तियों का उपयोग किया है। स्वयं आचार्यों ने युक्ति से अनेक विषय समझाये हैं। आचार्य श्री वीरसेन ने तो करणानुयोग के शास्त्र धवलादि टीका में शंकासमाधान की पद्धति से ही समझाया है। यहाँ भी जो स्पष्टीकरण चल रहा है वह सब आगम की मर्यादा में ही चल रहा है।
९१. प्रश्न : आठों कर्मों में मोहनीय कर्म और मोहनीय में भी दर्शनमोहनीय बलवान है; ऐसा कथन शास्त्र में आया है। उसे आप आज्ञा से प्रमाण मानो।
उत्तर : हमें शास्त्र का प्रत्येक वाक्य प्रमाण है। मोह और मोह में भी दर्शनमोह कर्म बलवान है; यह सर्व विषय हम शतप्रतिशत स्वीकारते हैं। यहाँ हम इतना मात्र स्पष्ट करना चाहते हैं कि “दर्शनमोहनीय कर्म बलवान