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ध्यान का स्वरूप वातानुकूलित कक्ष में सर्दी-गर्मी की बाधा नहीं रहती और मक्खीमच्छरों का उपद्रव भी नहीं होता; अतः ध्यान करने में सुविधा रहती है, मन लग जाता है।
हमारे पूर्वजों के ध्यान को मक्खी -मच्छर तो क्या और सांप और शेर जैसे क्रूर पशु भी विखण्डित नहीं कर सके, उन्हें ध्यान से विचलित नहीं कर सके और हम मक्खी -मच्छर से भी विचलित होने लगे।
हमारे पूर्वज तो सर्दी-गर्मी से भी कभी विचलित नहीं हुए। उनके माथे पर तो सिगड़ी तक जला दी गई, पर वे तो अडिग ही रहे, पर हमें आत्मा का ध्यान करने के लिए भी वातानुकूलित कमरे चाहिए।
ध्यान को सीखने-सिखाने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जिस वस्तु में अपनापन आ जाता है, जिसके प्रति रुचि जाग्रत हो जाती है; उसका ध्यान तो सहज ही होता है। यदि हम चाहे भी कि हमें उसका ध्यान न आवे, तब भी हम उसके ध्यान से नहीं बच सकते।
प्रश्न - यह तो ठीक ही है कि ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य पदार्थ तो एकमात्र त्रिकालीध्रुव निजभगवान आत्मा ही है; तथापि प्राथमिक अवस्था में अभ्यास के लिए तो किसी भी पर पदार्थ पर उपयोग केन्द्रित किया जा सकता है?
उत्तर - नहीं. पर प्राथमिक अवस्था वालों के लिये तो बृहद्रव्यसंग्रह में यह लिखा है -
"प्राथमिकापेक्षयासविकल्पावस्थायां विषयकषायवञ्चनार्थ चित्तस्थिरकरणार्थं पञ्चपरमेष्ठ्यिादि परद्रव्यमपि ध्येयं भवति ।
पश्चादभ्यासवशेन स्थिरीभूते चित्ते सति शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्तं भवति ।
प्राथमिक पुरुषों की अपेक्षा से सविकल्प अवस्था में विषय और कषाय दूर करने के लिये और चित्त को स्थिर करने के लिये पंचपरमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं।
तत्पश्चात् जब अभ्यास के वश से चित्त स्थिर हो जाता है। तब १. बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५५ की ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका
जिनागम के आलोक में शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभावी निज शुद्धात्मा का स्वरूप ही ध्येय होता है।"
उक्त कथन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि पंचपरमेष्ठी और उनके द्वारा प्रतिपादित जिनागम में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था भी धर्मध्यान का ध्येय (ध्यान देनेयोग्य) हो सकती है। आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय
और संस्थानविचयरूप धर्मध्यानों की विषयवस्तु से यह बात सिद्ध होती है; परन्तु शारीरिक स्वास्थ्य के लिए किये गये प्रयासों को तो धर्मध्यान किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता। रयणसार में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि -
अज्झयणमेव झाणं, पंचेंदियणिग्गहं कसायं पि।
तत्तो पंचमकाले, पवयणसारब्भासमेव कुज्जाहो ।' शास्त्रों का अध्ययन ही ध्यान है; क्योंकि उसी से पंचेन्द्रियों और कषायों का निग्रह होता है। इसलिए इस पंचमकाल में प्रवचनसार अर्थात् जिनागम का ही अभ्यास करना चाहिए।
इसप्रकार हम देखते हैं कि पंचमकाल में अर्थात् इस युग में तो विशेषकर गृहस्थों के लिए अध्ययन ही मुख्य है।
प्रश्न - ध्यान करने के लिए आसन कौनसा होना चाहिए। उत्तर – उक्त सन्दर्भ में आचार्य जिनसेन लिखते हैं -
"ध्यान बैठकर, खड़े रहकर और लेटकर भी किया जा सकता है। शरीर की जो भी अवस्था ध्यान की विरोध करनेवाली न हो; उस अवस्था में अपनी सुविधानुसार ध्यान किया जा सकता है।
यदि किसी व्यक्ति की स्थिति खड़े होने या बैठने की न हो तो क्या वह आत्मध्यान से वंचित हो जायेगा ? नहीं, कदापि नहीं।"
सभी ध्यानार्थी निज भगवान आत्मा का स्वरूप समझ कर, उसमें ही अपनापन स्थापित कर, उसमें ही जम जावें, रम जावें और अनन्त सुख्खायाचिकासप्तरकाकार, रहमी संगल भावना के साथ विराम लेता हूँ। . २. आचार्य जिनसेन : महापुराण, पर्व २१, छन्द ७५