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________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु "इन बारह भावनाओं के अभ्यास से जीवों की कषायरूपी अग्नि शान्त हो जाती है, राग गल जाता है, अन्धकार विलीन हो जाता है और हृदय में ज्ञानरूपी दीपक विकसित हो जाता है।८" ___अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से संसार, शरीर, भोगों से उदासीनभावरूप वैराग्य की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। स्वरूप-स्थिरता का पुरुषार्थ और संवरपूर्वक निर्जरा एवं मोक्ष की ओर प्रयाण होता है। आस्रव भावना में दुःखद आस्रवों का विचार करने से संवर और निर्जरा का सम्यक् पुरुषार्थ जाग्रत होता है। ___बोधिदुर्लभ भावना में रत्नत्रय की दुर्लभता का चिन्तन करने से प्राप्त अवसर को न गँवाने की भावना उत्पन्न होती है। लोक भावना में लोक के स्वरूप तथा उसमें परिभ्रमण के दुःखों का चिन्तन करने से निज चैतन्य लोक में निवास की प्रेरणा मिलती है। इत्यादि अनेक उद्देश्यों की पूर्ति इन वैराग्यवर्धिनी भावनाओं के चिन्तन से होती है तथा यह चिन्तन वीतरागता की उपलब्धि में सहायक होता है। "जो भव्य जीव अनादिकाल से आज तक मोक्ष गये हैं; और जो आगे मुक्त होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिन्तवन करके ही हुए हैं और आगे होंगे।९" ___“जो धर्मध्यान में प्रवृत्ति करता है, उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधाररूप हैं; अनुप्रेक्षा के बल पर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है ।२०" अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से संसार, शरीर और भोगों की अशरणता असारता आदि का चिन्तन कर वैराग्य को दृढ़ किया जाता है। यद्यपि मुनिराज की भूमि वैराग्य से भीगी होती है, तथापि उनके जीवन में भी वैराग्य की अत्यधिक अभिवृद्धि हेतु वैराग्यजननी बारह भावनाओं का चिन्तन आवश्यक होता है। छहढालाकार पण्डित दौलतरामजी के शब्दों में कहें तो - मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगन तें वैरागी। वैराग्य उपावन माई, चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई ।। बारह भावना : सामान्य विवेचन १४७ वे महाव्रतों को धारण करने वाले मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं, जो भवभोगों से विरक्त हैं तथा वैराग्य को पुष्ट करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तन करते हैं। __ स्वामी कार्तिकेय के शब्दों में 'भवियजणाणंद जणणीयो' अर्थात् बारह भावनाएँ भव्यजीवों के लिए आनन्दजननी हैं।२९" ___अनुप्रेक्षा को भावना कहने का कारण यह कि - अनुप्रेक्षा का अर्थ होता है बारम्बार चिन्तवन करना । किसी भी विषय की गहराई में जाने के लिए उसके स्वरूप का बारम्बार विचार करना होता है। अतः अनुप्रेक्षा को भावना शब्द से भी कहा जाता है। उक्त अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन बारह प्रकार का होने से ये बारह भावना के नाम से प्रसिद्ध है। ___ अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन मात्र मुनिराज ही नहीं, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक एवं अविरत सम्यग्दृष्टि भी करते हैं। __मुनिराज का जीवन तो वैराग्यमय होता ही है। अतः वे तो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि होते हैं; उनके जीवन में तो इन भावनाओं का चिन्तन एवं उसका फल प्रगट भी हो ही जाता है, फिर भी वैराग्यभाव की विशेष वृद्धि के लिए वे इनका चिन्तन करते हैं। सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक भी अपने वैराग्यभाव की वृद्धि के लिए इन वैराग्यमय भावनाओं का चिन्तन करते हैं। प्रथमानुयोग के उल्लेख इस बात के साक्षी हैं किसी भी तीर्थंकर गृहस्थदशा का परित्याग कर मुनिधर्म अंगीकार करते हैं, और इन बारह-भावनाओं का चिन्तन करते हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को भी इनके चिन्तन का निषेध नहीं है, तथापि उसे वस्तुस्वरूप का सम्यक् बोध न होने से, उसके चिन्तन में समीचीनता नहीं होती। वह शरीरादि की अनित्यता, अशरणता आदि के चिन्तन से उनके प्रति समभाव न लाकर देह और भोगों की क्षणभंगुरता से भयभीत होकर दुःखी हो जाते हैं। अतः उसे सर्वप्रथम आगम के आधार पर सत्य वस्तुस्वरूप का निर्णय करना चाहिए। 74
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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