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________________ बारह तप ११९ अन्तरंगतप “अन्तरंग तपों में प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (त्याग) और ध्यान के बाह्य प्रवर्तन को तो बाह्यतपवत् ही जानना । बाह्य में अनशनादि बाह्य क्रियायें हैं, उसी प्रकार इनमें भी जो बाह्य क्रियायें हैं; वे बाह्य तपवत् ही हैं, इसलिए प्रायश्चित्तादि बाह्य साधनों को अन्तरंग तप नहीं कहते । ऐसे बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अन्तरंग परिणामों की शुद्धता होती है उसका नाम अन्तरंग तप है।" ये प्रायश्चित्त आदि अन्तरंग तप अंतःकरण के व्यापार का अवलंबन लेकर होते हैं, इसीलिए इनको अन्तरंग तप कहते हैं। ये बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते।१० ___ “मन का नियमन करनेवाला होने से भी इन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं।" १. प्रायश्चित्त :- प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप ११८ चलते फिरते सिद्धों से गुरु “अभ्यन्तर तप के लिए बाह्य तप साधन के रूप में है, अतः अभ्यन्तर तप प्रधान है। यह अभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामों से युक्त रहता है, इसके बिना बाह्य तप कर्म-निर्जरा करने में असमर्थ है।" "बाह्य तप शुद्धोपयोग बढ़ाने को करते हैं। शुद्धोपयोग निर्जरा का कारण है, इसलिए उपचार से तप को निर्जरा का कारण कहा है।" "जिसके द्वारा मन में दुष्कृत अर्थात् संक्लेश परिणाम उत्पन्न नहीं होते, जिस तप के करने से अभ्यन्तर तप में श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिनसे पूर्वगृहीत योग अर्थात् महाव्रत आदि हीन नहीं होते - इस प्रकार के बाह्य तपों का अनुष्ठान करना चाहिए।" आत्मसाधक सन्तों का एकमात्र लक्ष्य शुद्धोपयोग की अभिवृद्धि करते हुए पूर्णता को प्राप्त करना है। बाह्य तप में भी खाने-पीने इत्यादि के विकल्पों से निवृत्त होकर शुद्धोपयोग की साधना करना ही उद्देश्य होता है; अतः बाह्य तप, अभ्यन्तर रागभाव की कमी के सूचक भी हैं। हाँ, यदि अन्तरंग में रागभाव में कमी नहीं हुई हो और मानादि कषाय के वशीभूत होकर बाह्य तप किये जायें, तो उन्हें तप नहीं कहा जाएगा। ध्यान रहे, कोई भी अभ्यन्तर अथवा बाह्य तप सम्यग्दर्शन के बिना समीचीन नहीं होता। सम्यग्दर्शन से रहित मिथ्यादृष्टि के तप को तो बालतप कहा गया है, जो संवरपूर्वक निर्जरा का कारण नहीं होता । यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र की सभी टीकाओं में तपों के स्वरूप का वर्णन करते हुए सबके साथ 'सम्यक' पद लगाने का निर्देश दिया गया है। तप का प्रयोजन राग-द्वेष आदि विकारों को सदा के लिए दूरकर आत्म-परिशोधन है, न कि मात्र देह-दमन । तप के माध्यम से आत्मशुद्धि हेतु विकारों को तपाया जाता है, न कि शरीर को। शरीर तो आत्मशुद्धि और आत्मसाधना का माध्यम मात्र है। वस्तुतः जो ज्ञान-स्वभाव की भावना भाता है, उसे बाह्य तप स्वयमेव हो जाता है और अभ्यन्तर तप तो स्वयं आत्मा के ज्ञान, ध्यान आदि रूप हैं, जो आत्मविशुद्धि का साक्षात् साधन है। अतः तप को साधक के जीवन की कसौटी माना जाता है। __ "प्रायश्चित्त शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रायः+चित्त यहाँ प्रायः शब्द का अर्थ लोक होता है और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है। जिस ज्ञान-क्रिया के द्वारा साधर्मी और संघ में रहनेवाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये, उस ज्ञान क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं।" ___ "जो ज्ञानी मुनि ज्ञानस्वरूप आत्मा का बारम्बार चिन्तन करता है और विकल्पादि प्रमादों से जिनका मन विरक्त रहता है, उनके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।१४” "जिस ज्ञान क्रिया से पूर्व में किये पापों से मन निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है। प्रतिसमय लगनेवाले अन्तरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अन्तःकरणशोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दण्ड रूप में उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है। बाह्य दोषों का प्रायश्चित्त पश्चात्ताप मात्र से हो जाता है, पर अन्तरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष आलोचनापूर्वक दण्ड को स्वीकार किये बिना नहीं होता ।१५ 60
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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