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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
दिगम्बर मुनि की आहार चर्या, नग्नता द्रव्यलिंग के भेद
मुनिपद विशुद्ध आत्मकल्याण के लिए धारण किया जाता है। यह पद अलौकिक है, अतः उनके सहज ही लौकिक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है। उन्हें किसी भी लौकिक कार्य से कोई प्रयोजन ही नहीं होता। ___ मुनिराज समस्त अंतरंग-बहिरंग परिग्रह के त्यागी होने के साथ पाँचों इन्द्रियों के विषयों के त्यागी भी होते हैं। इसकारण उनको वस्त्रादि की आवश्यकता ही नहीं होती। अत: वे नग्न ही रहते हैं। ___कहा जा सकता है कि लज्जा के कारण मुनिराजों को वस्त्र तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए, पर यह सोच सही नहीं है; क्योंकि मुनिराजों ने लज्जा परिषह पर भी विजय प्राप्त कर ली है। उनकी नग्नता निर्विकारता की सूचक है तथा लज्जा स्वयं एक स्थूल विकार है, जो मनुष्य को तन ढकने के लिए बाध्य करता है, किन्तु मुनिराज गोदी के छोटे बालक की भांति पूर्ण निर्विकारी हो गये हैं। अतएव उन्हें वस्त्र की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती।
जिसतरह गोदी के नंगे बालकों को माँ अपना दूध पिलाते हुए भी लज्जित नहीं होती, अन्य नारियाँ भी उसे गोद में लेकर खिलाती हुईं लज्जित नहीं होतीं, बल्कि पवित्र प्रेम से उसे गले लगाती हैं।
यह भी कहा जा सकता है कि भले ही वे निर्विकारी हो गये; पर देखनेवालों के परिणाम तो बिगड़ते ही हैं न ! अतएव मुनिराजों को वस्त्र ग्रहण कर लेना चाहिए।
यह बात भी अविचारित रम्य है, क्योंकि जो मुनिराज के निर्विकाररूप को नहीं समझते, उन्हें मुनिराज को देखकर विकार हो सकता है, किन्तु उनके विकार के कारण मुनिराज नहीं हैं; क्योंकि जिनका स्वयं का मन विकारयुक्त है, उन्हें तो सवस्त्र पुरुषों एवं स्त्रियों को देखकर भी विकार हो सकता है। जिनको विकार पैदा होता है, उन्हें ही अपना विकार प्रक्षालित करना पड़ेगा।
दिगम्बर मुनिराज की नग्न वीतराग मुद्रा को देखकर तो देखनेवाले श्रद्धा से अभिभूत होकर एवं उनकी त्याग-तपस्या पर चकित होकर उनके चरणों में झुक जाते हैं, नतमस्तक हो जाते हैं; अत: मुनियों के दर्शकों के चित्त में विकार उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
यह तर्क भी दिया जाता है कि जब वस्त्रों से उन्हें राग-द्वेष नहीं है तो वस्त्रों के रहने और न रहने से उन्हें क्या आपत्ति है ?
यह बात सत्य है कि वस्त्र से उन्हें राग-द्वेष पैदा नहीं होते, परन्तु वस्त्र के प्रति राग टूट जाने पर शरीर पर वस्त्र रहते ही नहीं। शरीर पर वस्त्रों की सम्हाल राग के बिना कैसे होगी? लोक में इसप्रकार के उदाहरण प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं। जैसे उपवास में भोजन के प्रति राग टूट जाने के कारण स्वत: ही भोजन करने की क्रिया नहीं देखी जाती।
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट मुनिराज के अनिवार्यरूप से अट्ठाईस मूलगुण होते हैं, जिनका वे निर्दोष पालन करते हैं। उन २८ मूलगुणों में नग्नता भी एक गुण है।
दिगम्बर मुनिराज परीषहों अथवा उपसर्गों को दूर करने के लिए किसी भी प्रकार का उपाय नहीं करते । कोई भी वाहन एवं जूता-चप्पल आदि का उपयोग नहीं करते । सर्दी-गर्मी से बचने के लिए कोई साधन का उपयोग नहीं करते। यदि कोई अविवेकी गृहस्थ उनके लिए किसी त्याज्य वस्तु का उपयोग करता है तो वे उसको उपसर्ग समझते हैं। धर्म
और समाज के नाम पर मुनिराज अपने लिए तथा समाज के लिए धर्मशाला वसतिका, मन्दिर, तीर्थ आदि बनाने अथवा बनवाने का कोई भी भार स्वीकार नहीं करते। उनको इसप्रकार का कोई विकल्प ही नहीं होता; क्योंकि इन कार्यों में आरंभजनित हिंसा होती है, जिसके मुनि सर्वथा त्यागी होते हैं।
मुनिराज अट्ठाईस मूलगुण एवं तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोष पालन करते हैं, अत: वे श्रावकों द्वारा वन्दनीय हैं, यद्यपि मुनि को वन्दन,
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