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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
जैसे समुद्र में मग्न हुआ मच्छ बाहर निकलना नहीं चाहता, वैसे ही मैं ज्ञानसमुद्र में डूबकर फिर नहीं निकलना चाहता। एक ज्ञानरस को ही पिया करूँ, आत्मिक रस बिना और किसी में रस है ही नहीं। सारे जग की सामग्री चेतनारस के बिना जड़स्वभाव धारण करनेवाली उसी भांति फीकी है, जैसे लवण बिना अलोनी रोटी फीकी होती है।"
महामुनि आत्मा का ध्यान ही धारण करते हैं, उनका ध्यान देखकर ऐसा लगता है, मानो वे केवली भगवान की प्रतिमा की होड़ कर रहे हैं। वे भगवान की परमशांत मुद्रा के दर्शन कर यह विचारते हैं कि
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"हे भगवन् ! आपके प्रसाद से मैंने भी निज स्वरूप को पाया है, अतः इस समय मैंने अन्तर्मुख होकर निज स्वरूप का ही ध्यान किया है; आपका नहीं। आपके ध्यान के अवलम्बन से मुझे निजस्वरूप का ही ध्यान करते हुए आनन्द विशेष होता है। मुझे अनुभवपूर्वक भी ऐसी ही प्रतीति है और दिव्यध्वनि द्वारा आपने भी ऐसा ही उपदेश दिया है।"
ब्र. रायमल्लजी ने अपने ज्ञानानन्द श्रावकाचार में आगे कहा है कि " अध्यात्म में निमग्न मुनिराज जब आहार-विहार के समय शुभभाव भूमि में होते हैं, तब उनकी व्यवहारचर्या कैसी होती हैं ? यह बात भी जानने योग्य है।"
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इस बात का चित्रण करते हुए उन्होंने लिखा है कि- “मुनिराज जब नगर से नगरान्तर, प्रदेश से प्रदेशान्तर विहार करते हैं। भोजन के अर्थ नगरादि में जाते हैं, तब वहाँ वे पड़गाहे जाने पर नवधाभक्ति सहित छियालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर खड़े-खड़े एक बार करपात्र में आहार लेते हैं। इत्यादि शुभ कार्यों में प्रवर्तन करते हैं ।
मुनि उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर परिणामों की निर्मलता के अर्थ अपवाद मार्ग को भी अपनाते हैं और कदाचित् अपवाद मार्ग छोड़कर उत्सर्ग मार्ग को अपनाते हैं। यद्यपि उत्सर्ग मार्ग कठिन है और अपवाद मार्ग सुगम है। छठवें गुणस्थान में आने पर मुनि के ऐसा हठ नहीं है कि 'मुझे कठिन आचरण आचरणा है या सुगम ही आचरण करना है।"
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दिगम्बर मुनि: स्वरूप और चर्या
कहने का आशय यह है कि मुनि के तो परिणामों की परख है, बाह्य क्रिया का प्रयोजन नहीं है। जिस प्रवृत्ति से परिणामों की विशुद्धता की वृद्धि हो और वीतरागता बढ़े, वही आचरण आचरते हैं। ज्ञान-वैराग्य आत्मा का जो निज लक्षण है, उसे ही चाहते हैं।
मुनिराज छठवें गुणस्थान में आने पर शुभभाव में आते तो हैं; परन्तु शुभभावों में अधिक काल रहना नहीं चाहते। अतः हर अन्तर्मुहूर्त में सप्तम गुणस्थान में जाकर शुद्धोपयोग की भावभूमि में अतीन्द्रिय आनन्द सागर में डुबकी लगाने लगते हैं; समता रस का पान करने लगते हैं। इसी बात को पण्डित दौलतरामजी ने निम्नांकित शब्दों में इसप्रकार लिखा है
"यह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये ।
चिर भजे विषय - कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये ।। " इसप्रकार पण्डित दौलतराम ने भी निजपद में, स्वरूप में मग्न होने की प्रेरणा देते हुए विषय कषाय और विषयों को प्राप्त करानेवाले पुण्यभावों को त्यागने की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है तथा परपद में न लगे रहकर स्वपद में आने की पावन प्रेरणा दी है। इतना ही नहीं यह अमूल्य अवसर न चूकने की बात भी कही है।
पण्डित दौलतराम एवं अन्य सभी विचारकों ने यह कहा है किलाख बात की बात यही निश्चय उर लाओ । तोरि सकल जग दंद- फंद निज आतम ध्याओ ।। कोटि ग्रन्थ को सार यही है, ये ही जिनवाणी उचरौ है ।
दौल ध्याय अपने आतम को, मुक्तिरमा तोहि वेग वरै है ।। " इसप्रकार हम देखते हैं कि निज स्वरूप में लीनता द्वारा ही आत्मकल्याण संभव है। इस बात के लिए ही सम्पूर्ण जिनागम समर्पित है । यत्र-तत्रसर्वत्र इसी बात को प्रमुखता दी गई है।
मुनिराज भावों की अपेक्षा छठवें सातवें गुणस्थानों में झूले की तरह झूलते रहते हैं। करणानुयोग के अनुसार छठवाँ गुणस्थान शुभभावों का है, जिसमें आहार, विहार एवं उपदेश देने आदि के भाव होते हैं और