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________________ ३४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु ____ मुनिराजों को पापभावरूप विकथायें करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। 'मुनिराज तो शास्त्रों की व्याख्यायें करने, शास्त्र लिखने, दीक्षा एवं उपदेशादि देने से भी बचते हैं। इनकी दैनिक चर्या में इन कार्यों के कोई निर्धारित कार्यक्रम नहीं होते। ये तो सदैव ज्ञान-ध्यान में ही रहना चाहते हैं।" कदाचित् दुःखी संसारी तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ जिज्ञासु जीवों पर करुणा भाव आ जावे तो प्रवचन आदि शुभ क्रियायें करते तो हैं, किन्तु इन्हें हेय मानते हैं - ऐसा गजब का स्वरूप होता है दिगम्बर साधुओं का! ऐसे ज्ञानी-ध्यानी चलते-फिरते सिद्धों जैसे साधुओं को देख कर उनकी वन्दना के लिए, किसका मस्तक श्रद्धा से नहीं झुक जायेगा? और किसकी श्रद्धा समर्पित नहीं होगी उनके चरणों में? ___ मुनिराजों की बातचीत, उनका खान-पान, चलना-फिरना, उठनाबैठना, संयम और ज्ञान के उपकरणों का उठाना-धरना तथा मल-मूत्र, कफादि का क्षेपण करना भी इतना निर्दोष और विवेक पूर्वक होता है कि जिससे द्रव्य हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं होता, किसी व्यक्ति विशेष से अनुराग न होने से रागादि रूप भावहिंसा भी नहीं होती। मुनिराजों की एक-एक क्रिया और उनकी दिनचर्या की महिमा का बखान करना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। ___"जगत मुनि के अन्तर्बाह्य स्वरूप से सुपरिचित हो, उनके तप-त्याग और आत्मसाधना को भलीभांति जानकर उनका अनुसरण करके अपना कल्याण करे, मुनिराज की प्रत्येक धार्मिक क्रिया के आयोजनों का प्रयोजन जानकर सही दिशा में धर्माचरण करें" - इस पावन उद्देश्य से दिगम्बर मुनि की एक-एक आदर्श क्रिया और उनके द्वारा प्रतिपादित वीतरागतावर्द्धक उपदेशों की चर्चा भी अपेक्षित है। अन्यथा जगत जन सन्मार्ग से भटक सकते हैं। दिगम्बर मुनि : स्वरूप और चर्या रुकते । मुनिराज के लिए यह कोई ऊपर से लादा गया प्रतिबंध नहीं है। बल्कि वे वैराग्यरस से ऐसे प्लावित होते हैं कि श्रावकों से उन्हें ऐसा अनुराग ही नहीं होता कि वे एक जगह अधिक रुकें । वे एकान्तप्रिय ही होते हैं, वर्षा ऋतु में जीव राशि की प्रचुर उत्पत्ति होने के कारण करुणा सागर मुनिराजों को सहज ही विहार करने का भी भाव नहीं आता और निर्मोही होने से बिना कारण एक स्थान पर रुकने का भी भाव नहीं आता। उनके सभी कार्यक्रम सहज होते हैं। यही कारण है कि वे कभी किसी का आमंत्रण स्वीकार नहीं करते। उन्हें किसी तिथि विशेष पर कहीं किसी कार्यक्रम विशेष में पहुँचने का विकल्प भी नहीं होता। निर्मोही दिगम्बर मुनिराज की वृत्ति अनन्तानुबंधी आदि तीन चौकड़ी के अभाव के कारण जगत से अत्यन्त निरपेक्ष हो जाती है, इसकारण वे जगत के लौकिक तो क्या, धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होने के लिए भी पहले से अपना कार्यक्रम नहीं बनाते। समस्त शुभाशुभ कार्यों के व्यापार से विमुक्त रहते हैं तथा चार आराधनाओं में सदा लीन रहते हैं। ___ 'दिगम्बर मुनिराज का किसी के प्रति शत्रुता व मित्रता का भाव नहीं होता, उन्हें सांसारिक सुख-दुःख में साम्यभाव रहता है। निन्दा-प्रशंसा में विषाद व हर्ष नहीं होता। कंचन-कांच - दोनों को पुद्गलपिण्ड के रूप में ही देखते हैं। जीवित रहने और मरण के प्रसंग में हर्ष-विषाद नहीं करते। दिगम्बर मुनिराज मुख्यतया रत्नत्रय की भावना से निजात्मा को ही साधते हैं। दिगम्बर मुनि आत्मसिद्धि के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-पूर्वक सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग का साधन करते हैं, लौकिक विषय में किसी से कुछ नहीं कहते, हाथ-पांव आदि के इशारे से भी कुछ नहीं दर्शाते । मन से भी कुछ चिन्तवन नहीं करते हैं। केवल शुद्धात्मा में लीन होकर अंतरंग व बाह्य वाग्व्यापार से रहित निस्तरंग समद्र की तरह शान्त रहते हैं। जब वे स्वर्ग-मोक्ष के मार्ग के विषय में ही किंचित् भी उपदेश या आदेश नहीं ___“दिगम्बर मुनि के स्थायी आवास हेतु कोई मठ-मन्दिर या आश्रम आदि नहीं होते। वे चतुर्मास के सिवाय एक स्थान पर अधिक नहीं 18
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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