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चलते फिरते सिद्धों से गुरु सच्चा द्रव्यलिंग है। ध्यान रहे, 'द्रव्यलिंगी' शब्द कोई अपशब्द नहीं है। भावलिंग के साथ द्रव्यलिंग तो अनिवार्य है ही।
आचार्यश्री ने आगे कहा - "अहा ! मुनिपद तो अलौकिक पद है, मुनिराज पंचपरमेष्ठी पद में विराजमान हैं। अत: मुनि पद ग्रहण कर्ता की बड़ी भारी जिम्मेदारी है। एतदर्थ आचार्यों ने मुनि के स्वरूप को समझाते हुए अपने-अपने संघों के मुनियों को बहुत सावधान किया है।
श्रावक ने आचार्यश्री का महान उपकार मानते हुए संकोच के साथ निवेदन किया - "गुरुदेव ! आपने जो मुनि के आचरण संबंधी मूलगुणों एवं उत्तर गुणों की चर्चा की और उन्हें मुनि को निर्दोष पालन करना अनिवार्य बताया सो क्या इस पंचमकाल में और हम जैसे हीन संहननवालों से मुनि धर्म का निर्दोष निर्वाह संभव है ? मैं इसे धारण कर सकता हूँ ? आपने जो विधि बताई, मैं उस विधि पूर्वक ही मुनि बनूँ - ऐसी मेरी भावना है।"
आचार्यश्री ने समाधान किया - "हे भव्य ! तेरी भावना उत्तम है, शास्त्रों के कथनानुसार पंचम काल के अन्त तक भी भावलिंगी मुनि होते रहेंगे। अत: तू निराश मत हो । तेरी भावना अवश्य पूरी होगी। परन्तु इस बात का ध्यान रख कि - ‘सत्य को समझने की जरूरत है। सत्य में समझौता और समन्वय संभव नहीं है। अत: मुनिपद जैसा ऊँचा पद लेकर शिथिलता संभव नहीं है। मुनिपद न लेने का अल्पदोष है और मुनिपद लेकर शिथिल होना बड़ा अपराध है, पापबंध का कारण है। अत: जल्दी मत कर ! अपनी शक्ति को देख कर जितना निभ सके, उतना अवश्य कर !
तीसरी बात यह है कि जो जिस काम को करने का संकल्प कर लेता है, ठान लेता है, वह उस काम को कर गुजरता है और वह उसमें उग्र पुरुषार्थ से सफल भी होता है।
चौथी मुख्य बात यह है कि - आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार, नियमसार एवं अष्टपाहुड़ में जो निर्देश दिए हैं, वे सब पंचमकाल के मुनियों के लिए ही दिए हैं। अतएव आचार्यों ने मुनि के यथार्थ स्वरूप को समझने हेतु आगम में मुनि के स्वरूप का कथन परवर्ती होनेवाले
मुनिधर्म साधन की प्रक्रिया मुनिराजों के लिए ही किया है। ___ मुनिराज तो उसे पढ़ते ही हैं, गृहस्थ भी मुनिपद की महिमा से परिचित हों, एतदर्थ वे भी प्रस्तुत विषय को समझने का प्रयास अपनी मर्यादा में रह कर करते हैं। ___ अत: मुनिव्रत लेकर शिथिलता के कारण गृहस्थों द्वारा आलोचना के पात्र बनना निन्दनीय भी है और पापबंध का कारण तो है ही। ____ मुनि के भावलिंग की प्रमुखता बताते हुए कुन्दकुन्द ने कहा है - "मुनियों के भावलिंग प्रमुख होता है, इसीलिए हे भव्य ! तुम भावलिंग को पहिचानो; क्योंकि गुण और दोषों का कारणभूत भावलिंग ही है।
बाह्य परिग्रह आदि का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है; परन्तु अभ्यन्तर परिग्रह रागादिक हैं, रागादिक के सद्भाव में बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है तथा अभ्यन्तर रागादि छूटने पर बाह्य परिग्रह तो स्वत: छूट ही जाता है।
जन्म-जन्मान्तरों में कोड़ाकोड़ि काल तक हाथ लम्बे लटकाकर वस्त्रादिक का त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है। इसलिए कहा है कि - हे शिवपुरी के पथिक ! प्रथम मुनि भाव को जान, भावरहित लिंग से तुझे क्या प्रयोजन है ?" श्रावक एवं साधुधर्म का समन्वय करते हए कन्दकन्द ने कहा है कि
"दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण तेण विणा । झाणाझयणं मुक्खं जइधम्म ण तं विणा तहा सो वि।। तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो ।
अणवरयं धम्मकहापसंगादो होइ मुणिराओ।। दान व पूजा के बिना श्रावक धर्म नहीं होता; और ध्यान व अध्ययन साधुओं को प्रधान है, इनके बिना यतिधर्म नहीं होता।
जो मुनिराज सदा तत्त्वविचार में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग की आराधना करना जिनका स्वभाव है और जो निरन्तर धर्मकथा में लीन रहते हैं अर्थात् यथावकाश रत्नत्रय की आराधना व धर्मोपदेशादिरूप दोनों प्रकार की क्रियाएँ करते हैं, वे यथार्थ मुनि हैं।" ___ 'जो सदा ज्ञान व दर्शन में प्रतिबद्ध रहते हैं और बाह्य में मूलगुणों में प्रयत्नशील होकर विचरण करते हैं, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है।"
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