________________
छहढाला का सार
छठा प्रवचन
११४
प्रतिदिन प्रातः, दोपहर और शाम को छह-छह घड़ी (२ घंटे और १२ मिनिट) मन से सामायिक करना, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की वचन से स्तुति करना और काया से जिनेन्द्र की वंदना करना, सर्वज्ञकथित आगम का स्वाध्याय करना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग करना - ये छह मुनिराजों के आवश्यक हैं, उनके लिये अवश्य करने योग्य कार्य हैं। ये उनके अवश कार्य हैं। तात्पर्य यह है कि वे इन्हें स्वाधीन होकर करते हैं, किसी के वश होकर नहीं।
स्नान का त्याग, दन्तधोवन का त्याग, वस्त्र का त्याग, भूमिशयन अर्थात् जमीन पर सोना, दिन में एक बार आहार लेना, खड़े-खड़े हाथ में आहार लेना और केशलोंच करना - ये सात मुनिराजों के शेष गुण हैं। इनकी चर्चा छहढाला की छठवीं ढाल में इसप्रकार की गई है -
समता सम्हारै थुति उचाएँ, वंदना जिनदेव को । नित करैं श्रुति-रति करें प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को ।। जिनके न न्हौंन न दंतधोवन, लेश अंबर आवरन । भू माहिं पिछली रयनि में, कछु शयन एकाशन करन ।। इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निज-ध्यान में ।।
वे मुनिराज प्रतिदिन समतापूर्वक सामायिक करते हैं, स्तुति बोलते हैं, जिनदेव की वंदना करते हैं, उनका प्रेम निरन्तर स्वाध्याय में रहता है, प्रतिक्रमण करते हैं और शरीर के प्रति ममत्वभाव को छोड़ते हैं अर्थात् कायोत्सर्ग करते हैं।
ये छह मुनिराजों के प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।
उन मुनिराजों के न स्नान है और दन्तधोवन है। तात्पर्य यह है कि न तो वे नहाते हैं और न दातुन (मंजन) करते हैं। उनके शरीर पर रंचमात्र भी वस्त्र का आवरण नहीं होता अर्थात् वे पूर्णत: नग्न रहते हैं।
वे पिछली रात में, भूमि पर एक आसन से थोड़ा-बहुत सोते हैं। रात में तो भोजन का प्रश्न ही नहीं है, दिन में भी एक बार खड़े-खड़े, थाली में नहीं, अपने हाथों में अल्पाहार करते हैं। वे २२ परिषहों से डरते नहीं हैं और अपने हाथों से केशों का लुंचन करते हैं और अपने आत्मा के ध्यान में लगे रहते हैं। ___ मुनिराजों के उक्त २८ मूलगुणों में से दो मूलगुण तो आहार से ही संबंधित हैं। उनके संबंध में मेरी एक अन्य कृति 'पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव' का निम्नांकित कथन ध्यान देने योग्य है -
“मुनिराजों के २८ मूलगुणों में दो मूलगुण आहार से ही संबंधित हैं - १) दिन में एक बार अल्प आहार लेना और २) खड़े-खड़े हाथ में आहार लेना। जैसा कि छहढाला की निम्नांकित पंक्ति में कहा गया है -
"इकबार दिन में लें आहार खड़े अलप निजपान में।" मुनिराज दिन में एक बार ही आहार लेते हैं, वह भी भरपेट नहीं, अल्पाहार ही लेते हैं और वह भी खड़े-खड़े अपने हाथ में ही।
ऐसा क्यों है, खड़े-खड़े ही क्यों ? बैठकर शान्ति से दो रोटियाँ खा लेने में क्या हानि है ? हाथ में ही क्यों, थाली में जीमने में भी क्या दिक्कत है ? इसीप्रकार एक बार ही क्यों, बार-बार क्यों नहीं, अल्पाहार ही क्यों, भरपेट क्यों नहीं ?
यह कुछ प्रश्न हैं, जो लोगों के हृदय में उत्पन्न होते हैं।
वनवासी मुनिराज नगरवासी गृहस्थों की संगति से जितने अधिक बचे रहेंगे, उतनी ही अधिक आत्मसाधना कर सकेंगे। इसीकारण वे नगरवास का त्याग करते हैं, वन में रहते हैं, मनुष्यों की संगति की अपेक्षा वनवासी पशु-पक्षियों की संगति उन्हें कम खतरनाक लगती है;
(58)