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छहढाला का सार
पाती है और तलाक का नम्बर आ जाता है। तुम चाहे जितनी अकल लगा लेना; पर मिलेगी वही, जो पहले से सुनिश्चित है।”
सर्वज्ञता के साथ क्रमबद्धपर्याय पूरी तरह गुथी हुई है। यदि हम पर्यायों सुनिश्चित क्रम अर्थात् क्रमबद्धपर्याय को स्वीकार नहीं करेंगे तो अरहंत और सिद्ध भगवान की सर्वज्ञता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो जायेगा। उक्त सन्दर्भ में विशेष जानने की इच्छा हो तो लेखक की अन्य कृति ' क्रमबद्धपर्याय' का स्वाध्याय करना चाहिये ।
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इसके बाद सम्यग्ज्ञान की महिमा बताते हुये कहा है
ज्ञान समान न आन जगत में, सुख को कारन । इह परमामृत जन्म- जरा मृतु रोग निवारण ।। कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरें जे । ज्ञानी के छिन माहिं, त्रिगुप्ति तैं टरेँ ते ।। मुनिव्रत धार अनन्त बार, ग्रीवक उपजायो ।
पै निज आतम ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो ।।
इस जगत में ज्ञान के समान अन्य कोई पदार्थ सुख का कारण नहीं है। यह ज्ञान जन्म, जरा और मृत्युरूपी रोग निवारण करने के लिये परम अमृत है।
आत्मज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों में निरन्तर तप करते रहने पर जितने कर्म झड़ते हैं; उतने कर्मों को ज्ञानी जीव त्रिगुप्ति के बल से क्षणभर में नष्ट कर देते हैं। यद्यपि यह आत्मा मुनिव्रत धारण करके अनन्त बार अन्तिम ग्रैवेयक तक में उत्पन्न हुआ, तथापि आत्मज्ञान के बिना रंचमात्र भी सुख प्राप्त नहीं किया।
वैमानिक देवों के रहने के स्थानों में सोलह स्वर्गों के ऊपर नौ ग्रैवेयक होते हैं। मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनिराज अधिक से अधिक तक ही जाते हैं; उसके आगे नहीं ।
इसके बाद आत्महित कर लेने की प्रेरणा देते हुये लिखते हैं
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चौथा प्रवचन
तातैं जिनवर कथित, तत्त्व अभ्यास करीजै । संशय विभ्रम मोह त्याग, आपौ लख लीजै ।। यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनिवौ जिनवाणी । इह विधि गये न मिलै, सुमणि ज्यों उदधि समानी ।।
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै । ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै ।। तास ज्ञान को कारण, स्व-पर विवेक बखानो । कोटि उपाय बनाय, भव्य ताको उर आनो ।। इसलिये जिनेन्द्रदेव द्वारा बताये गये तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने का अभ्यास निरन्तर करना चाहिये और संशय, विभ्रम और मोह का त्याग करके अपने आत्मा का अनुभव कर लेना चाहिये ।
कवि तो करीजे और लीजे कहकर एक प्रकार से आदेश ही दे रहे हैं। विभ्रम को विपर्यय और मोह को अनध्यवसाय भी कहते हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के दोष माने गये हैं ।
आत्मा की सत्ता (अस्तित्व) में या स्वरूप में संशय होना संशय नामक दोष है। 'आत्मा है या नहीं यह आत्मा के अस्तित्व (सत्ता) के बारे में शंका है और 'आत्मा मात्र ज्ञानस्वभावी ही है अथवा रागद्वेष- मोहवाला भी है' - यह स्वरूप के संबंध में शंका है।
आत्मा के अस्तित्व और स्वरूपादि के बारे में एकदम उल्टा निर्णय कर लेना विपर्यय नामक दोष है। 'आत्मा है ही नहीं' या 'आत्मा रागद्वेष वाला ही है' - ऐसा निश्चय कर लेना विपर्यय नामक दोष है।
आत्मा के सम्बन्ध में उपेक्षाभाव अनध्यवसाय है। 'आत्मा होगा तो होगा और नहीं होगा तो नहीं होगा; अथवा जैसा भी होगा - हमें क्या करना है, इस व्यर्थ की माथापच्ची से हमें क्या लेना-देना है ? - इसप्रकार का उपेक्षा भाव अनध्यवसाय है।