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________________ छहढाला का सार कोई नहीं होगा; लेकिन अंदर से जानता है कि दिवाला मेरा नहीं, सेठ का निकलेगा । ३४ यदि वह यह कहने लग जाय मेरे बाप का क्या जाता है, दिवाला निकलेगा तो सेठ का निकलेगा; ले जा, जितना लेना है, ले जा; जिस भाव ले जाना है, ले जा। तो क्या होगा ? व्यवहार में तो व्यवहार की ही भाषा बोलनी पड़ेगी, मैं भाषा बदलने के लिए नहीं कहता हूँ, मैं तो अंदर के भावपरिवर्तन की बात करता हूँ । ये जो देहादि परपदार्थों में एकत्व - ममत्वबुद्धि, कर्तृत्व-भोक्तृत्व बुद्धि है; वह अगृहीत मिथ्यात्व है और यह अगृहीत मिथ्यात्व इस जीव के अनादि से है। इसप्रकार जीव- अजीव तत्त्वसंबंधी भूल की चर्चा करके अब आस्रव-बंध तत्त्वसंबंधी भूल की बात करते हैं - आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे । आस्रव घना दुःख देनेवाले हैं और बुद्धिमान जीव उनसे निवृत्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के शुभाशुभ आस्रवभाव घना दुःख देनेवाले हैं। कोई भी आस्रव सुख देनेवाला नहीं है। रागादि प्रगट ये दुःखदैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन । शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति- अरति करै निजपद विसार । यद्यपि सभी प्रकार के रागादीभाव प्रगट दुःख देनेवाले हैं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हीं का सेवन करता हुआ स्वयं को सुखी मानता है। यह अज्ञानी जीव अपने आत्मा को भूलकर शुभ बंध के फल में रति और अशुभ बंध के फल में अरति करता है। आस्रव और बंध दो-दो प्रकार के होते हैं- पुण्यास्रव और पापास्रव, पुण्यबंध और पापबंध । दोनों ही दुःख के कारण हैं। लेकिन हमें पुण्यास्रव और पुण्यबंध सुखकर लगते हैं और पापास्रव और पापबंध (18) दूसरा प्रवचन दुखकर लगते हैं। पुण्य के फल में जो अनुकूलता मिलती है, स्वर्गादिक मिलते हैं; वे सब अच्छे लगते हैं । ३५ जब यह सुनिश्चित हो गया कि स्वर्ग के संयोग, पाँच इन्द्रियों के विषय-भोग - ये सभी दुःखरूप ही हैं, दुःख ही हैं; तब जिस पुण्य के उदय में ये भोग प्राप्त होते हैं, स्वर्ग प्राप्त होता है; वह पुण्य भी दुःख का कारण हुआ और वह पुण्य जिन शुभभावों से बँधता है; वे शुभभाव भी दुःख के कारण ।। जब शुभभाव भी दुःख का कारण है और अशुभभाव भी दुःख का कारण है तो शुभ और अशुभ - ऐसे दो भेद करने से क्या लाभ है ? अत: यही ठीक है कि शुभाशुभ भाव अशुद्धभाव हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव और अमृतचन्द्रदेव ने प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत आनेवाले शुभपरिणामाधिकार में यह बात बहुत विस्तार से स्पष्ट की है। ऊपर से तो हम बोल देते हैं कि आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हेँ निरवेरे; लेकिन आस्रव-बंध अनन्त दुःख देनेवाले हैं - यह बात कितने लोग जानते हैं ? अन्तर की गहराई से यह बात कितने लोगों को स्वीकार है ? भाषा के स्तर पर तो बात आ जाती है; किन्तु बुद्धि की गहराई में जाकर सबकुछ गोलमाल लगता है । यह सब अगृहीत मिथ्यादृष्टि की आस्रव-बंधतत्त्वसंबंधी भूल है। अब संवर- निर्जरा और मोक्ष तत्त्वसंबंधी भूल की बात करते हैं - बेचारे सन्तों को कितनी तकलीफ है, हम तो घरों में ए. सी. में बैठे हैं, चार-चार बार खा रहे हैं, पी रहे हैं। टी. वी. देख रहे हैं और वे तो बेचारे आहार भी दिन में एक बार निरन्तराय मिला तो मिला, नहीं तो निराहार । वन में डांस हैं, मच्छर हैं, कितनी तकलीफें हैं। इसप्रकार हम उन्हें बहुत दुःखी मानते हैं और अपने को बहुत सुखी मानते हैं।
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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