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________________ छहढाला का सार २० का अस्तित्व मिटा देना चाहते हैं। अरे भाई ! अपने पैरों में धूल लगती हो तो तुम जूता पहन लो, सारी दुनिया को चमड़े से क्यों मढ़ते हो ? करनी है तो अपनी सुरक्षा करो, मच्छरदानी लगा लो; मच्छरों को क्यों मारते हो ? यह तो आप जानते ही होंगे कि चक्रवर्ती यदि गृहस्थी में मरे, राज्य करते हुये मरे तो नियम से नरक में जाता है। कहावत भी है कि राजेश्वरी सो नरकेश्वरी । जो चीज अनन्त दुःख का कारण है, उसे हमने सुखस्वरूप मान लिया है, सुख का कारण मान लिया है। हमारे यह पूछने पर यहाँ जैनियों के कितने घर होंगे ? लोग कहते हैं कि सौ घर होंगे। फिर बिना ही पूछे ही बताते हैं कि उनमें दस घर सुखी हैं। अरे भाई ! हमने यह कब पूछा था कि कितने सुखी हैं और कितने दुःखी ? हम तो मानते हैं कि सारे संसार में कोई भी सुखी नहीं है। जो संसार विषै सुख हो तो तीर्थंकर क्यों त्यागें ? काहे को शिवसाधन करते संयम सो अनुरागें ।। यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकरों के पास क्या कमी थी, चक्रवर्ती के पास क्या कमी थी ? उन्हें संसार में सुख महसूस नहीं हुआ तो मुक्ति की साधना करने के लिए एक क्षण में सबकुछ छोड़कर नम दिगंबर होकर चल दिये। भाई ! बहुत बातें दूसरों के अनुभव से भी सीख लेना चाहिए। क्या तुम जहर को भी चखकर देखोगे ? दूसरों को जहर खाकर मरते देखकर यह निर्णय नहीं कर सकते कि जहर खाना मृत्यु का कारण है। जरा समझदारी से काम लो और इस असार संसार को दुःखरूप जानकर स्वयं में समा जावो सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। पहली ढाल का मात्र इतना ही सार है कि संसार में सुख नहीं है। यह बात आपको समझ में आ गयी तो समझ लेना छहढाला की पहली ढाल समझ में आ गई। अब दूसरी ढाल में यह बतायेंगे कि उक्त दुःखों का मूल कारण क्या है ? • (11) दूसरा प्रवचन तीन भुवन में सार, वीतराग - विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकै ।। कल हमने पहली ढाल की चर्चा की थी, उसमें चार गतियों के दुःखों का वर्णन है । उस सम्बन्ध में मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँसबसे ज्यादा दुःख कौनसी गति में हैं ? - सबके मनों में इस प्रश्न का सहज भाव से एक ही उत्तर आता है। और वह यह है कि नरक गति में सबसे ज्यादा दुःख हैं । छहढाला की पहली ढाल में बार-बार आता है कि नरकों में इतनी भूख लगती है, इतनी प्यास लगती है कि तीन लोक का अनाज खा जाये तो भी भूख नहीं मिटे, समुद्र का पानी पी जाये तो भी प्यास नहीं मिटे | सर्दी इतनी कि लोहे का गोला छार-छार हो जाये, गर्मी इतनी कि वह गोला पिघलकर पानी हो जाये। इससे हमें लगता है कि सबसे ज्यादा दुःख नरकगति में ही है। लेकिन इसी छहढाला में सबसे अधिक दुःख तिर्यंच गति में बतायें हैं; क्योंकि दु:खों की बात जो आरम्भ की है, वह तिर्यंच गति से की है, निगोद से आरम्भ की है - काल अनन्त निगोद मँझार बीत्यो एकेन्द्रिय तन धार । तिर्यंच गति में सबसे अधिक दुःख हैं; क्योंकि उसमें निगोद सामिल है। नारकी जीवों के दुःख बाहर से अधिक दिखते हैं और तिर्यंच गति में तो लोग सिर्फ गाय, भैंस, कुत्ता, बिल्ली को ही तिर्यंच समझते हैं। निगोदिया भी तिर्यंच हैं, यह बात उनके ख्याल में ही नहीं है ।
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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