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________________ काव्य-४२ काव्य ४२ वल्गत्तुरङ्ग-गज-गर्जित-भीमनाद माजौ बलं बलवतामरि भूपतीनाम् । उद्यदिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं __ त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ।।४२ ।। हिन्दी काव्य जिस रनमाहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम। घन से गज गरजाहिं मत्त मानो गिरि जंगम ।। अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सनीजै। राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै ।। नाथ तिहारे नामतै, सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाशतें, अन्धकार विनशाय ।।४२ ।। अन्वयार्थ - (त्वत् कीर्तनात्) आपके नाम के कीर्तन से या आपका स्मरण करने से मात्र (आजी) संग्राम में जहाँ (वल्गत् तुरङ्ग गजगर्जित भीमनादम्) उछल-उछलकर हिनहिनाते हुए घोड़ों और गर्जना करते हुए हाथियों की भयंकर आवाज हो रही है, जिसमें ऐसी (बलवताम्) पराक्रमी, शक्तिशाली सेनाओं से युक्त (अरिभूपतीनाम्) शत्रु राजाओं की (बलम्) सेनायें (उद्यत् दिवाकर-मयूख-शिखा अपविद्धं) उदीयमान सूर्य की किरणों के अग्रभाग से भेदे गए (तं इव) अन्धकार की तरह (आशु) शीघ्र (भिदाम् उपैति) विनाश को प्राप्त होती हैं। काव्य ४२ पर प्रवचन दिगम्बराचार्य मुनिवर श्री मानतुङ्ग वैसे तो अधिकांश आत्मा के ज्ञानानन्दरस में ही सराबोर रहते थे, किन्तु उन्हें भी जिनेन्द्र भगवान की भक्ति का उत्साह आया और यह भक्तामरकाव्य के रूप में महान काव्यरूप स्तुति बन गई। इसलिये ऐसा कहा जाता है कि श्री मानतुङ्गाचार्य ने यह काव्य बनाया। किंवदन्ति है कि आचार्य श्री मानतुङ्ग को तत्कालीन राजा ने ४८ दरवाजों के अन्दर ताले लगाकर बन्दी बनाया था। उस समय मुनिवर श्री मानतुङ्ग द्वारा यह काव्यमय स्तुति बनाई गई। उनकी अन्दर की पवित्रता और बाह्य में पुण्योदय के निमित्त से उन ४८ दरवाजों के सभी ताले टूट गये। जब जिनेश्वरदेव की निश्चय-भक्ति से कर्म की १४८ प्रकृतियाँ टूट जाती हैं तो पुण्य के उदय से ४८ ताले टूट गये तो इसमें क्या आश्चर्य ? यहाँ कहते हैं कि ज्ञानी संग्राम में लड़ाई के मध्य खड़ा हो तो भी उसे भय नहीं होता। वह आत्मा के ध्रुव ज्ञानस्वभाव के आश्रय से अन्तरंग के रागादि शत्रुओं को जीत लेता है तथा बाह्य में पूर्व पुण्य के योग से संग्राम (लड़ाई) जीत लेता है - यह सब आपकी भक्ति का ही प्रभाव है। आप ही वीतरागी देव हो, ज्ञानी आपके सिवाय अन्य किसी की स्तुति नहीं करता; तीर्थंकर, वासुदेव, बलदेव आदि शलाका पुरुष हैं। इन्हें अपने पूर्णानन्दस्वभाव का भान होने पर भी वर्तमान कमजोरी से युद्ध करने का भाव आ जाता है, किन्तु हृदय में आपके प्रति भक्तिभाव होने से पुण्योदय के फलस्वरूप वहाँ भी जीत जाते हैं। हे भगवन् ! आपकी भक्ति करनेवालों को अन्तरंग में कर्म शत्रुओं पर एवं बहिरंग में संग्राम के शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती ही है; क्योंकि आपके भक्त भक्ति के भावों से ऐसा ही पुण्य बाँधते हैं। देखो! मुनिश्री मानतुङ्ग को भक्ति का शुभराग आया है। वे उसमें वीतराग भगवान की स्तति करते हैं। अन्तरंग में आत्मगीत (आत्मा के गाने) गाते हैं तथा बाह्य में वीतरागी परमात्मा की स्तुति करते देखे जाते हैं। हे देव! आपकी ऐसी भक्ति करनेवाला धर्मात्मा यदि गृहस्थदशा में ऐसे युद्ध में जाता है, जहाँ घोड़े उछलते हैं, हाथी गर्जते हैं, सामने महापराक्रमी राजा ललकारते हैं तो वह आपकी भक्ति के प्रसाद से ऐसी बलवान सेना को भी जीत लेता है। जैसे सूर्य की किरणें अन्धकार का नाश करती हैं, वैसे ही धर्मात्मा ज्ञानस्वभाव के आश्रय से अन्तरंग में राग का तो नाश करता ही है और बाह्य में पुण्योदय के कारण संग्राम जीत भी लेता है। हे नाथ ! आपकी भक्ति बिना ऐसा पुण्य नहीं होता। आचार्य कहते हैं कि
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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