SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तामर प्रवचन ૨૮ रूप में आपके जैसा उत्कृष्ट पुण्य का उदय होता है, वैसा अन्य किसी देव के नहीं होता । जैसे दिन में एकसूर्यही जगत के अंधकार का नाश करता है, रात्रि में ८८ ग्रह और २८ नक्षत्र मिलकर भी अंधकार को दूर नहीं कर सकते; वैसे ही आपके पूर्णके रपूर्णता है। अरहतदशा में आपकी जैसी ऋद्धि होती है, वैसी अन्य किसी की नहीं होती। आपको समवशरण मिला, यह निमित्त का कथन है। वास्तव में आपको वीतरागता ही मिली है, अन्यदेवोंको यहनहीं मिलती है। जैसेसूर्यकीकांतिग्रहादि में नहीं, वैसेही आपकेसमक्ष किसी देवादिकी कोई गिनती नहीं है। अरहन्त दशा में जिसे सातिशय पूर्ण पुण्य और पूर्ण पवित्रता का महान योग होता है, वे तीर्थंकर भगवान हैं। जिससमय श्री मानतुङ्गाचार्य पर उपसर्ग हुआ, उसीसमय उनको आदिनाथ भगवान की स्तुति करने का विकल्प उठा । तत्परिणामस्वरूप यह भक्तामर स्तोत्र रचा गया । ताले टूटने का काल वही था । शुभराग (भक्ति) करने से ताले टूट गये - ऐसा नहीं है, किंतु कथन में निमित्त को प्रधान कर ऐसा कथन भी किया जाता है; अन्यथा जिससमय जो पर्याय होनी है, उस समय वही होती है, अन्य नहीं। वीतराग-स्वभाव की दृष्टि, ज्ञान एवं लीनता से केवलज्ञानरूप पूर्ण दशा होती है, किन्तु पहले विश्व कल्याण की भावना से जो शुभराग आता है, उससे तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। तीर्थंकर के पूर्ण पुण्य न हो तो किसके हो? पवित्रता प्रकट होने से पुण्य का उत्कृष्ट रस बढ़ जाता है। आयु कर्म के अतिरिक्त अन्य पुण्य प्रकृतियों की स्थिति कम हो जाती है, किन्तु शुद्ध उपयोग से उनका रस बढ़ता है। हे नाथ ! आपके पवित्रता के साथ पुण्य की भी पूर्णता है। ___ जो तीर्थंकर के पुण्य में कमी या दोष बताकर समवशरण में प्रतिकूलता या उपसर्ग होना बताते हैं, उन्हें अरहन्तदशा के पुण्य की खबर नहीं है और वे भगवान के स्वरूप को नहीं जानते हैं। भगवान के बाह्य में चँवर, छत्र आदि सामग्री होती है; उनकी अन्तरंग पवित्रता के साथ पुण्य के परिणामस्वरूप ये बाह्य सामग्री भी होती है - ऐसा जानना। काव्य ३८ श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल मत्तभ्रमभ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं __ दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ।।३८।। हिन्दी काव्य मद-अवलिप्त-कपोल-मल अलि-कल झंकारें। तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारै ।। काल-वरन विकराल कालवत् सन्मुख आवै। ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै ।। देखि गयन्द न भय करै, तुम पद-महिमा छीन । विपति रहित सम्पति सहित, वर” भक्त अदीन ।।३८।। अन्वयार्थ - [हे भगवन् !] (भवदाश्रितानाम्) आपकी शरण में आये हुए आपके भक्तजनों को (श्च्योतत्) झरते हुए (मद) मदजल से (आविल) कलुषित-मलिन हुआ और (विलोल) चंचल (कपोल-मूलम्) गण्डस्थल प्रदेश [कनपटी] पर (मत्त) उन्मत्त-मदान्ध (भ्रमद्) मँडराते हुए (भ्रमर-नाद) भौरों की गुन-गुनाहट से (विवद्ध) बढ़ गया है (कोपम) क्रोध जिसका- ऐसा (ऐरावत आभम) ऐरावत हाथी जैसे आकारवाले मोटे अथवा ऐरावत हाथी की तरह आभावाले (आपन्तम्) सामने आते हुए (उद्धतम्) उद्दण्ड, उच्छृङ्खल (इभं दृष्ट्वा) हाथी को देखकर भी (भयं नो भवति) भय उत्पन्न नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जिसने आपका आश्रय लिया है, उसे किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । यहाँ तक कि क्रोधोन्मत्त विकराल हाथी जिसके कपोलों से मद चूरहा हो और उस पर भौरे मँडराने से जिसका क्रोध भड़क रहा हो - ऐसा हाथी भी आपके शरणागत भक्त का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। काव्य ३८ पर प्रवचन इस अड़तीसवें काव्य में श्री मानतुङ्गाचार्य देव ने यह कहा है कि - 'हे भगवान! अनेक प्रकार के भयों को दूर करने में आप ही निमित्त हो। जो आपका आश्रय लेता है. उसे किसी प्रकार के भय नहीं रहते।' - ऐसा कहकर आचार्यदेव प्रसन्नता व नि:शंकता से भक्ति का उत्साह बढ़ाते हैं।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy